
भीमा कोरेगांव मामला: वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण फरेरा को सुप्रीम कोर्ट से मिली जमानत
क्या है खबर?
सुप्रीम कोर्ट ने भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में 2 आरोपियों वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण फरेरा को जमानत दे दी है। दोनों ही आरोपियों की जमानत याचिका बॉम्बे हाई कोर्ट ने खारिज कर दी थी, जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
इस मामले में गोंसाल्वेस और फरेरा साल 2018 से जेल में बंद हैं। दोनों को साल 2018 में ही गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत गिरफ्तार किया गया था।
शर्त
कई शर्तों के साथ मिली जमानत
कोर्ट में जमानत याचिका पर सुनवाई जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने की। कोर्ट ने कहा कि जमानत के बाद दोनों आरोपियों को एक ही मोबाइल इस्तेमाल करना होगा, जिसकी लोकेशन हमेशा जांच अधिकारियों से साझा करनी होगी।
दोनों को अपने पासपोर्ट पुलिस के पास जमा कराने होंगे। फरेरा और गोंसाल्वेस राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) की विशेष अदालत की इजाजत के बिना महाराष्ट्र से बाहर नहीं जा सकेंगे।
मामला
क्या है मामला?
31 दिसंबर, 2017 को पुणे के शनिवारवाड़ा में कोरेगांव-भीमा की लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी। इस कार्यक्रम के अगले दिन भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़क गई थी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई थी।
पुलिस का कहना था कि ये हिंसा संगोष्ठी में दिए भड़काऊ भाषण की वजह से हुई थी और इस कार्यक्रम को माओवादियों का समर्थन प्राप्त था। इस मामले में पुलिस ने 16 लोगों को गिरफ्तार किया था।
सुधा
इस मामले में सुधा भारद्वाज भी थी आरोपी
इस मामले में पुणे पुलिस ने अगस्त 2018 में अधिवक्ता-कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को भी गिरफ्तार किया था। 2019 में मामला NIA को सौंप दिया गया था। इसके बाद सुधा ने अगस्त 2020 में भी बीमारी का हवाला देकर बॉम्बे हाई कोर्ट में जमानत याचिका दायर की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था।
हालांकि, दिसंबर 2021 में उन्हें 50,000 रुपये के मुचलके और कई शर्तों के साथ सुप्रीम कोर्ट से डिफॉल्ट (स्वत:) जमानत मिल गई थी।
लड़ाई
क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई?
महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव की लड़ाई का इतिहास 202 साल पुराना है। कहा जाता है कि 1 जनवरी, 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना और पेशवा के नेतृत्व वाली मराठा सेना के बीच लड़ाई हुई थी। इसमें पेशवा की हार हुई थी। इस लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत का श्रेय महार रेजिमेंट को दिया जाता है।
महार समुदाय को उस समय अछूत समझा जाता था, इसलिए अनुसूचित जाति के लोग इसे ब्राह्मणवाद के खिलाफ जीत मानते हैं।