#NewsBytesExplainer: महिला आरक्षण विधेयक पर विपक्ष एकजुट, जानिए इस विधेयक की पूरी कहानी
महिला आरक्षण विधेयक को लेकर भारत राष्ट्र समिति (BRS) की के कविता दिल्ली में एक दिन की भूख हड़ताल पर बैठी हैं। उनकी मांग है कि संसद के मौजूदा सत्र में ही महिला आरक्षण विधेयक को पेश किया जाए। कविता ने कहा है कि उनका प्रदर्शन विधेयक पेश नहीं हो जाने तक जारी रहेगा। उनके साथ 18 विपक्षी दल के नेता भी यही मांग कर रहे हैं। जानते हैं महिला आरक्षण विधेयक से जुड़ी सभी बातें।
कैसे शुरू हुई महिलाओं को आरक्षण देने की चर्चा?
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए आरक्षण की चर्चा 70 के दशक से चल रही है। साल 1975 में 'समानता की ओर' नाम की एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें महिलाओं को आरक्षण देने की बात कही गई थी। 1980 के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित कराने की कोशिश की थी, लेकिन इसका खूब विरोध हुआ।
महिला आरक्षण विधेयक में क्या प्रावधान हैं?
इस विधेयक में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। इसी 33 प्रतिशत में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी है। महिला आरक्षण विधेयक एक संविधान संशोधन विधेयक है। यही कारण है कि इसे दो तिहाई बहुमत से पारित किया जाना जरूरी है। इसी वजह से ये विधेयक करीब 26 साल से लंबित है।
कैसे दिया जाएगा महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण?
महिलाओं को दो तरीके से आरक्षण देने की बात कही जाती है। पहला- लोकसभा और विधानसभा में एक तिहाई सीटें महिला सांसदों के लिए आरक्षित करना और दूसरा- पार्टियों के टिकट बंटवारे में 33 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देना। हालांकि, विधेयक में राजनीतिक पार्टियों को कितनी महिलाओं को टिकट देना होगा, इसका कोई जिक्र नहीं है। सिर्फ लोकसभा और राज्यसभा में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात कही गई है।
सबसे पहले 1996 में पेश हुआ था महिला आरक्षण विधेयक
12 सितंबर, 1996 को महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एचडी देवेगौड़ा सरकार ने पेश किया था। तब मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने विधेयक का विरोध किया। बाद में सरकार गिरने की वजह से लोकसभा भंग हो गई और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। मई, 1997 में विधेयक को दोबारा पेश किया गया, लेकिन लोकतांत्रिक जनता दल के प्रमुख शरद यादव के विरोध के चलते ये पास नहीं हो सका।
2010 में पहली बार राज्यसभा में पास हुआ विधेयक
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार में 1998, 1999 और 2003 में तीन बार विधेयक को लाया गया, लेकिन एक बार भी पास नहीं हो सका। 2008 में मनमोहन सिंह ने विधेयक को एक बार फिर राज्यसभा में पेश किया। दो साल बाद 2010 में कफी मशक्कत के बाद ये राज्यसभा से पारित हो गया। विधेयक अंतत: लोकसभा में पहुंचा, लेकिन 2014 में लोकसभा भंग होने के बाद इसकी मियाद खत्म हो गई।
क्यों होता है विधेयक का विरोध?
विधेयक का विरोध करने वाली पार्टियां और नेता 33 प्रतिशत आरक्षण में पिछड़ी महिलाओं को अलग से आरक्षण देने की मांग कर रहे हैं। उनका तर्क है कि ऐसा न करने से ज्यादातर सीटों पर शहरी महिलाओं का कब्जा हो जाएगा। मुलायम सिंह यादव ने इस विधेयक को पिछड़ों, मुसलमानों और दलितों को संसद में आने से रोकने की साजिश बताया था। वहीं, लालू यादव ने भी कहा था कि कांग्रेस महिलाओं और मुस्लिमों को पीछे छोड़ रही है।
पंचायत और निकाय चुनावों में महिलाओं को मिलता है आरक्षण
साल 1993 में संविधान में 73वां और 74वां संशोधन किया गया, जिसमें पंचायत और नगरीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गईं। इसके अलावा देश के कम से कम 20 राज्यों ने पंचायत स्तर पर महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दे रखा है।
वर्तमान संसद में कैसी है महिलाओं की स्थिति?
फिलहाल 542 सदस्यों वाली लोकसभा में 78 महिला सांसद हैं। वहीं, राज्यसभा के कुल 224 सदस्यों में से 24 महिलाएं हैं। दिसंबर 2022 में जारी हुए आंकड़ों के मुताबिक, देश के 19 राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या 10 प्रतिशत से भी कम है। छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा (14.44%) महिला विधायक हैं। इसके बाद पश्चिम बंगाल में 13.70 प्रतिशत विधायक महिलाएं हैं। भारत में केवल पश्चिम बंगाल ही ऐसा राज्य है, जिसकी मुख्यमंत्री एक महिला हैं।