#NewsBytesExplainer: कलकत्ता में पहली 'प्राइड परेड' से लेकर अब तक कैसी रही समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई?
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली संवैधानिक पीठ ने कहा कि कोर्ट कानून नहीं बना सकता। उन्होंने कहा, "समलैंगिकों की विवाह को मान्यता देना सरकार का अधिकार है, लेकिन उनके प्रति किसी तरह का भेदभाव न हो ये भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।" आइए जानते हैं कि भारत में अब तक समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई में क्या-क्या हुआ।
ब्रिटिश शासन में समलैंगिक संबंध बनाना था कानूनी अपराध
बिट्रिश शासन में समलैंगिक संबंध बनाना कानूनी अपराध था। इसे IPC की धारा 377 के तहत 1860 में लागू किया गया था। IPC की धारा 377 के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाता है तो उसे आजीवन कारावास या जुर्माने के साथ 10 साल तक की सजा हो सकती है। धारा 377 बगरी अधिनियम पर आधारित थी, जिसे 1838 में ब्रिटिश राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले ने तैयार किया गया था।
1999 में पहली बार कलकत्ता में निकाली गई प्राइड परेड
न्यूज 18 के अनुसार, साल 1999 में कोलकाता ने भारत की पहली समलैंगिक गौरव परेड की मेजबानी की और इस परेड को 'कलकत्ता रेनबो प्राइड' नाम दिया गया था, जिसमें 15 लोग शामिल हुए थे। इससे पहले 26 नवंबर, 1949 को संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार सुनिश्चित किया गया, लेकिन समलैंगिकता एक आपराधिक कृत्य बना रहा। इसके चलते समलैंगिक समुदाय (LGBTQ) के सदस्यों को दशकों तक उत्पीड़न और बहिष्कार का सामना करना पड़ा।
2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने सुनाया था ऐतिहासिक फैसला
समलैंगिकता को लेकर 2009 में नाज फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए IPC की धारा 377 को अंसवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया था। यह पहला मौका था, जब भारत में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, जो LGBTQ समुदाय के लिए पहली बड़ी जीत थी क्योंकि इससे पहले देश में समलैंगिक संबंध बनाना आपराधिक कृत्य था। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
2013 में सुप्रीम कोर्ट ने पलटा दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला
2013 में सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया और IPC की धारा 377 को बहाल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के हाई कोर्ट के फैसले को ये कहते हुए पलट दिया कि इस मुद्दे पर कानून बनाना या रद्द करना केंद्र सरकार के क्षेत्राधिकार का मामला है।
2017 में कोर्ट ने निजता के अधिकार को बताया मौलिक अधिकार
साल 2015 में कांग्रेस के लोकसभा सांसद शशि थरूर ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए सदन में एक विधेयक पेश किया, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया। आगे चलकर साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक पुट्टुस्वामी फैसले में निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखा। इस फैसले से LGBTQ समुदाय के कार्यकर्ताओं में नई उम्मीद जग गई।
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को कर दिया था रद्द
6 सितंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट की 5 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने इस संबंध में सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए IPC धारा 377 के सभी प्रवाधानों रद्द कर दिया था। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि समलैंगिक लोगों को भी सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया था, जिसके बाद से भारत में समलैंगिक संबंध बनाना आपराधिक कृत्य नहीं रह गया।
जनवरी, 2023 में याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में हुई ट्रासंफर
अक्टूबर, 2018 को केरल हाई कोर्ट ने समलैंगिक जोड़े को लिव-इन रिलेशनशिप में रहने की इजाजत दी थी। जनवरी, 2020 को समलैंगिक विवाह के हक के लिए केरल और दिल्ली हाई कोर्ट में अर्जियां दाखिल की गई। सितबर, 2020 को हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा, जिसके बाद दिसंबर, 2022 तक समलैंगिक विवाह संबंधित 20 और याचिकाएं दायर हो गईं। इन सब याचिकाओं को 6 जनवरी, 2023 को सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया।
10 दिनों की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सुरक्षित रखा था फैसला
13 मार्च, 2023 को मामला सुप्रीम कोर्ट की 5 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ को भेजा गया। 18 अप्रैल से समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई। 11 मई, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिन की सुनवाई के बाद विवाह को मान्यता देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखा था। 17 अक्टूबर यानी आज कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को मंजूरी देने से इनकार कर दिया।