तालिबान को सत्ता से हटाने आई अमेरिकी सेना अफगानिस्तान क्यों छोड़ रही?
तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद वहां के लोगों पर कहर बरपाना शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं, वह नई सरकार बनाने की तैयारी में भी जुट गया है। इसी बीच कूटनितिज्ञ अफगानिस्तान की इस हालत के लिए अमेरिका के अपने सैनिकों को वापस बुलने के फैसले को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने फैसले का बचाव किया है। ऐसे में सवाल है कि अमेरिका आखिर क्यों अफगानिस्तान को अकेला छोड़ गया?
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद अफगानिस्तान पहुंची थी अमेरिकी सेना
आतंकी संगठन अल-कायदा ने 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका के न्यूयॉर्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला किया था। इस हमले ने दुनिया को हिलाकर रख दिया था। तब अमेरिका ने तालिबान पर उस हमले के मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन और अल-कायदा के आतंकियों को शरण देने का आरोप लगाया था। इसके बाद 7 अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान का शासन खत्म कर दिया था।
अमेरिका ने आतंकियों को खत्म करने के लिए चलाया सैन्य अभियान
अमेरिका ने भले ही अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान के शासन को खत्म कर दिया था, लेकिन वह आतंकी लादेन को नहीं मार पाया था। ऐसे में उसने नेटो के सहयोगियों के साथ सैन्य अभियान चलाने का निर्णय किया और वहां अपना बेस स्थापित कर दिया। इसके बाद अमेरिका ने धीरे-धीरे अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या को बढ़ाना शुरू कर दिया। इससे तालिबान के लिए परेशानी खड़ी हो गई।
अफगानिस्तान में इस तरह बढ़ा अमेरिकी सैनिकों का दबदबा
अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण के लिए गठित कांग्रेसेशनल रिसर्च सर्विस के डाटा के अनुसार साल 2002 में अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या महज 5,000 थी, लेकिन 2006 में यह 20,000 पर पहुंच गई। इसके बाद 2008 में यह संख्या 30,000 और 2010 में 1.04 लाख तक पहुंच गई थी। इसी तरह 2011 में यह संख्या सबसे अधिक 1.10 लाख सैनिकों पर पहुंच गई। इतनी संख्या में अमेरिकी सेना के कारण अफगानिस्तान सुरक्षित हो गया था।
लादेन की मौत के बाद अमेरिकी सैनिकों की संख्या में आई गिरावट
साल 2011 में अफगानिस्तान में सबसे अधिक सैनिकों की तैनाती के बाद अमेरिका ने 2 मई, 2011 को पाकिस्तान के ऐब्टाबाद में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के मुख्य आरोपी आतंकी लादेन को मार गिराया। इसके बाद अमेरिका ने धीरे-धीरे अपने सैनिकों की संख्या में कमी करना शुरू कर दिया। साल 2013 में सैनिकों की संख्या महज 65,000, साल 2014 में 25,000 और 2020 में महज 4,000 रह गई थी।
अफगानिस्तान में हजारों सैनिकों की हुई मौत
अफगानिस्तान में तालिबान ने अमेरिकी सैनिकों और अफगानिस्तान के आम नागरिकों पर हमले किए। इसके चलते अफगानिस्तान में 2001 के बाद से कुल 2,443 अमेरिकी सैनिक और नेटो के 1,144 सहयोगी सैनिक मारे गए। इन हमलों में अफगानिस्तान की सेना और पुलिस के 64,100 से अधिक जवानों और 47,000 से अधिक आम नागरिकों की मौत हुई। इस दौरान अमेरिकी सेना की कार्रवाई में तालिबान और विरोधी बलों के 51,000 से ज्यादा लड़ाके भी मारे गए।
अमेरिका ने अफगानिस्तान में सैन्य अभियान पर खर्च किए 2.26 ट्रिलियन डॉलर
ब्राउन यूनिवर्सिटी के कॉस्ट ऑफ वार प्रोजेक्ट में अनुमान लगाया गया है कि अमेरिका ने 9 सितंबर, 2001 के बाद से अफगानिस्तान में 2.26 ट्रिलियन डॉलर से अधिक खर्च किया है। इसमें 800 बिलियन डॉलर सीधी लड़ाई में और 85 बिलियन डॉलर अफगान सेना को ट्रेनिंग देने पर खर्च हुआ है। इसी तरह अफगान सैनिकों को हर साल 750 मिलियन डॉलर के वेतन का भुगतान अमेरिकी नागरिकों की जेब से किया जाता रहा है।
राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2016 में किया था सैनिकों को वापस बुलाने का निर्णय
आतंकी लादेन की मौत के बाद साल 2014 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश में सेना की कमी की शुरुआत होने की घोषणा कर दी। इसको देखते हुए अमेरिका ने साल 2016 में अफगानिस्तान से पूरी तरह से अपनी सेना हटाने का प्रस्ताव लिया था, लेकिन अफगानिस्तान की अमेरिका समर्थित सरकार की सेना को देश की सुरक्षा के लिए दिए जाने वाले प्रशिक्षण की योजना के पूरा नहीं होने के कारण ऐसा नहीं हो सका था।
पूर्व राष्ट्रपति डोलाल्ड ट्रंप ने भी बनाई थी सेना को हटाने की योजना
साल 2017 में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने भी अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने की योजना बनाई थी, लेकिन अमेरिकी सेना अधिकारियों ने ऐसा करने से तालिबान के कब्जा करने की आशंका जता दी। इससे योजना आगे नहीं बढ़ पाई।
डोनाल्ड ट्रंप ने सेना की वापसी के लिए फिर उठाया कदम
अफगानिस्तान में सैन अभियान पर बढ़ते खर्च और तालिबानियों के हमले में हो रही अमेरिकी तथा नेटो सैनिकों की मौत को देखते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने साल 2018 में शांति और सेना की वापसी के लिए तालिबान से वार्ता शुरू की दी। इस बीच तालिबान का नेतृत्व करने के लिए पाकिस्तान ने 2010 में गिरफ्तार किए गए तालिबानी नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को 2018 में रिहा कर दिया। इसके बाद अमेरिका से तालिबान की बात आगे बढ़ी।
अमेरिका और तालिबान के बीच हुआ दोहा समझौता
फरवरी, 2020 में कतर की राजधानी दोहा में ट्रंप और मुल्ला बरादर के बीच समझौता हो गया। इसमें अमेरिका ने 1 मई, 2021 तक अफगानिस्तान से पूरी तरह से अपनी सेना हटाने तथा तालिबान के 5,000 कैदियों को रिहा करने पर सहमत हुआ। वहीं तालिबान ने अमेरिकी सैनिकों पर हमला नहीं करने और अफगान सरकार के साथ शांति वार्ता शुरू करने के लिए सहमति जताई।
तालिबान ने नहीं की समझौते की पालना
दोहा समझौते के बाद तालिबान ने इसकी पूरी तरह से पालना नहीं की और अफगानिस्तान के आम नागिरकों और सुरक्षा बलों पर हमला करना जारी रखा। इसके उलट अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने ट्रंप द्वारा किए गए समझौते की पालना करते हुए 11 सितंबर, 2021 यानी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले की 20वीं वर्षगांठ तक अफगानिस्तान से पूरी तरह से अपनी सेना हटाने की घोषणा कर दी। इसके साथ ही सैनिकों की वापसी का दौर शुरू हो गया।
तालिबान ने किया अफगानिस्तान पर कब्जा
अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन के इस फैसले का परिणाम यह रहा है कि उनके घोषणा करने के बाद से ही तालिबान ने अफगानिस्तान पर हमले करना तेज कर दिया और धीरे-धीरे विभिनन प्रांतों की राजधानियों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। तालिबान के हमलों के बाद भी अमेरिकी सेना की वापसी का दौर जारी रहा। इसके चलते तालिबान ने महज 15 दिनों के बाद यानी गत रविवार को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया।
अफगानिस्तान को गृह युद्ध की स्थिति में छोड़ने के लिए हो रही अमेरिका की आलोचना
20 साल पहले अल-कायदा को ढूढ़ते हुए अफगानिस्तान आए अमेरिका पर इस देश को गृह युद्ध की स्थिति में छोड़ने पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। अमेरिका 31 अगस्त तक अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी का ऐलान कर चुका है।
राष्ट्रपति बाइडन ने किया अपने फैसले का बचाव
राष्ट्रपति बाइडन ने अपने फैसले का बचाव करते हुए कहा कि सैनिकों की वापसी के लिए कभी भी कोई अच्छा समय नहीं हो सकता था। उनकी प्राथमिकता एक ऐसे युद्ध को रोकना थी जो तालिबान को सबक सिखाने के शुरूआती लक्ष्य से काफी आगे निकल गया था। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान को अपना भविष्य तय करने का हर मौका दिया, लेकिन जब वह अपनी जंग नहीं लड़ना चाहते तो इसके लिए अमेरिकी सैनिक अपनी जान क्यों दें।