कौन है असली शिवसेना, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कैसे तय करेगा चुनाव आयोग?
क्या है खबर?
महाराष्ट्र में शिवसेना के चुनाव चिह्न को लेकर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे गुट में खींचतान जारी है। दोनों गुट चुनाव चिह्न पर अपना दावा कर रहे हैं।
इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को इसका निर्धारण करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर छोड़ते हुए उद्धव गुट की याचिका को खारिज कर दिया।
इसके बाद सवाल यह उठ रहा है कि आखिर चुनाव आयोग किस तरह से असली शिवसेना का चुनाव करेगा?
पृष्ठभूमि
सुप्रीम कोर्ट ने किया था चुनाव आयोग की कार्यवाही पर रोक से इनकार
शिंदे गुट के चुनाव आयोग से उसे असली शिवसेना घोषित करने की मांग के बाद उद्धव गुट ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर आयोग की कार्यवाही पर रोक की मांग की थी।
इसको लेकर कोर्ट की साधारण पीठ ने रोक लगाते हुए मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया था।
मंगलवार को जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने आयोग की कार्यवाही पर रोक लगाने से इनकार करते हुए उद्धव गुट की याचिका खारिज कर दी थी।
निर्धारण
चुनाव आयोग कैसे करेगा असली शिवसेना का निर्धारण?
कानून और राजनीति के जानकारों का मानना है कि यह एक लंबी प्रक्रिया है। शिवसेना के चुनाव चिह्न पर किसका हक है, यह तय करने में आयोग को कई महीने लग सकते हैं।
कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण बात हर गुट के समर्थकों की संख्या है। आयोग इनका भौतिक सत्यापन करेगा। इसके साथ ही दोनों गुटों के संगठन पर प्रभाव को भी आंका जाएगा। इसके बाद ही आयोग किसी अंतिम निर्णय पर पहुंच सकेगा।
नियम
किस नियम के तहत निर्धारण करेगा चुनाव आयोग?
चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 चुनाव आयोग को पार्टियों को मान्यता देने और चुनाव चिह्न आवंटित करने का अधिकार देता है।
इस आदेश के पैरा 15 के तहत आयोग विरोधी दलों या किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के वर्गों के बीच असली पार्टी होने या चुनाव चिह्न हासिल करने के विवाद को लेकर अंतिम फैसला भी कर सकता है।
इसके लिए आयोग को विवाद में शामिल दोनों दलों के सभी सदस्यों से विस्तार से चर्चा करनी होती है।
अहम
दोनों गुटों में शामिल सदस्यों की संख्या होती है अहम
पार्टी और चुनाव चिह्न पर अधिकार के विवाद को सुलझाने के लिए चुनाव आयोग के अधिकारी दोनों दलों से बात करने के साथ संबंधित दावे के संबंध में दस्तावेजों की मांग करते हैं।
आयोग इस बात पर भी ध्यान देता है कि संगठन और विधायी विंग में दोनों गुटों के कितने सदस्य हैं। इसमें विधानसभा और संसद सदस्यों की संख्या भी शामिल है। ऐसे में दोनों गुटों को संबंधित दावे को लेकर एक अलग हलफनामा भी प्रस्तुत करना होता है।
बयान
बहुमत के नियम के आधार पर मामले का निर्धारण करता है आयोग- कुरैशी
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी के अनुसार, आयोग बहुमत के नियम के आधार पर ऐसे मामलों का निर्धारण करता है। यह भी देखा जाता है कि विधायी और संगठनात्मक विभागों में किस गुट के पास कितना बहुमत है।
उन्होंने कहा कि विधायी बहुमत में आयोग गौर करेगा कि किस गुट को अधिक विधायकों और सांसदों का समर्थन है। इसी तरह संगठनात्मक बहुमत में पार्टी के पदाधिकारी और अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए पात्र मतदाताओं की संख्या देखी जाती है।
जांच
सदस्यों के हस्ताक्षरों की भी होगी जांच- कुरैशी
कुरैशी के अनुसार, पार्टी को अपने समर्थन की घोषणा करते हुए हस्ताक्षरित हलफनामा देना होता है। इसके बाद आयोग फर्जी हस्ताक्षरों की जांच के लिए गहन प्रक्रिया से गुजरता है। यह स्थिति दोनों गुटों के हलफनामे में किसी एक सदस्य के हस्ताक्षर मिलने पर आती है।
उन्होंने कहा कि इस पूरी प्रक्रिया को अपनाने के बाद आयोग बहुमत के आधार पर तय करता है कि किस गुट को पार्टी का चुनाव चिह्न दिया जाना चाहिए।
बयान
"सुप्रीम कोर्ट ने 1969 में दिया था यह सिद्धांत"
कुरैशी ने कहा, "साल 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत की पुष्टि की थी। सुप्रीम कोर्ट ने 1971 में इस तर्क को बरकरार रखा था कि बहुसंख्यक सिद्धांत न्यायिक जांच की कसौटी पर हमेशा खरा उतरता है।"
पुनरावृत्ति
पहले भी सामने आ चुके हैं इस तरीके के विवाद
साल 2017 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में पड़ी दरार के बाद चुनाव चिह्न को लेकर विवाद हुआ था। दोनों पक्ष आयोग के पहुंचे थे।
उस दौरान आयोग ने संख्या के आधार पर पाया कि अखिलेश गुट को 228 विधायकों में से 205 का समर्थन प्राप्त था।
इसी तरह विधान परिषद के 68 में से 56 और 24 में से 15 सांसदों का समर्थन था। इसके बाद आयोग ने अखिलेश यादव गुट को चुनाव चिह्न का हकदार बताया था।
अन्य
इन दलों में भी हुआ था विवाद?
2017 में ही जब अन्नाद्रमुक में दरार पड़ी तो आयोग ने पाया कि याचिकाकर्ता समूह ई मधुसूदनन, ओ पनीरसेल्वम और एस सेम्मलाई के नेतृत्व की तुलना में ईके पलानीस्वामी को अधिकांश सदस्यों का समर्थन प्राप्त है।
इसी तरह 2021 में बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के विभाजन के समय चुनाव चिह्न को लेकर भी चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति पारस के बीच विवाद सामने आया था। बाद में दोनों गुटों को अलग-अलग चुनाव चिह्न आवंटित किए गए थे।