#NewsBytesExplainer: 'एक देश, एक चुनाव' के फायदे, नुकसान और इतिहास; यहां जानिए जरूरी बातें
केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है। अटकलें हैं कि इसमें 'एक देश, एक चुनाव' को लेकर विधेयक पेश किया जाएगा। इस संबंध में आज सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन भी किया है। इसके बाद 'एक देश, एक चुनाव' को लेकर चर्चाएं और बढ़ गई हैं। आइए समझते हैं कि इसे लागू करने में क्या संवैधानिक चुनौतियां हैं।
सबसे पहले जानिए क्या है 'एक देश, एक चुनाव'
'एक देश, एक चुनाव' से आशय देश में राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव एक साथ कराए जाने से है। वर्तमान में विधानसभा और लोकसभा चुनाव अलग-अलग होते हैं। जैसे इस साल के अंत में 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और फिर अगले साल लोकसभा चुनाव होंगे। इस विधेयक में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को साथ कराया जाना प्रस्तावित है। अगर ये विधेयक कानून बना तो पूरे देश में एक साथ चुनाव हो सकते हैं।
कानून बनाने को लेकर क्या हैं संवैधानिक चुनौतियां?
रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस विषय पर कानून बनाने के लिए संविधान में कम से कम 5 संशोधन करने होंगे। इनमें लोकसभा का कार्यकाल 5 साल निर्धारित करने वाला अनुच्छेद 83 (2), विधानसभा के कार्यकाल के निर्धारण से जुड़ा अनुच्छेद 172 (1) और राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने वाला अनुच्छेद 356 शामिल है। जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 समेत कई दूसरे कानूनों में भी बदलाव करने होंगे। इसके लिए कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से अनुमोदन लेना होगा।
कानून को लागू करने में और क्या हैं चुनौतियां?
इस संबंध में एक और बड़ी चुनौती राज्यों को राजी करने की है। साथ चुनाव करने के लिए कुछ राज्यों की विधानसभाओं को जल्द भंग करना होगा या कुछ का कार्यकाल बढ़ाना होगा। ऐसे में राज्यों को इसके लिए राजी करना मुश्किल काम रहेगा। हालांकि, विधानसभा भंग करने के लिए सरकार के पास राष्ट्रपति शासन लगाने का विकल्प है। राज्यों की अगर असहमति रही तो मामला सुप्रीम कोर्ट में भी जा सकता है।
कानून के क्या फायदे हैं?
इस कानून के समर्थन में मुख्य तौर पर 2 तर्क दिए जाते हैं। पहला ये कि साथ में चुनाव होने से खर्च में कमी आएगी। देश में लगभग हर थोड़े अंतराल पर चुनाव होते रहते हैं। इसके लिए चुनाव आयोग को खासे इंतजाम करने पड़ते हैं, जिससे खर्च बढ़ता है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि अलग-अलग चुनाव होने से बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू होती है और विकास कार्य रुक जाते हैं।
एक साथ चुनाव से खर्च पर क्या असर पड़ेगा?
विधि आयोग के मुताबिक, अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते तो 4,500 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च होते। ये खर्च इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) की खरीद पर होता। 2024 में एक साथ चुनाव कराने पर 1,751 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा। हालांकि, 2034 में एक साथ चुनाव कराने पर 14,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे, क्योंकि एक EVM मशीन 15 साल तक ही चलती है। इसलिए 15 साल बाद नई EVM खरीदनी होंगी।
क्या हैं एक देश एक चुनाव के विरोध में तर्क?
इस सिद्धांत के विरोध में सबसे बड़ा तर्क ये है कि इससे क्षेत्रीय और छोटे दलों को नुकसान होगा और केंद्र की पार्टी और मजबूत होगी। दूसरा तर्क ये है कि साथ में चुनाव होने से राष्ट्रीय मुद्दों के आगे स्थानीय मुद्दे दब जाएंगे। तीसरा तर्क ये है कि इससे सरकार की जवाबदेही कम हो जायेगी। अभी केंद्र सरकार को विधानसभा के लिए राज्यों पर ध्यान देना पड़ता है, लेकिन कानून बनने के बाद सरकार लापरवाह हो सकती है।
किस तरह से लागू हो सकती है पूरी प्रक्रिया?
रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक साथ चुनाव 2 चरणों में करवाए जा सकते हैं। पहले चरण में लोकसभा और कुछ राज्यों की विधानसभा के लिए मतदान हो सकता है। दूसरे चरण में बाकी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हो सकते हैं। ऐसे में यदि किसी राज्य की सरकार बीच में गिर जाती है तो ऐसी स्थिति में दूसरी बार में अन्य राज्यों के साथ उस राज्य के दोबारा चुनाव हो सके। हालांकि, इस संबंध में अभी कुछ स्पष्ट नहीं है।
क्या पहले कभी एक साथ चुनाव हुए हैं?
हां। देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे, तब लोकसभा और विधानसभा दोनों के लिए मतदान हुआ था। इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी एक साथ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव हुए थे। हालांकि, 1968-69 में कई राज्यों की विधानसभाएं भंग होने के बाद चुनाव अलग-अलग होने लगे। साल 1983 में चुनाव आयोग ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में दोबारा से एक साथ चुनाव कराने का मुद्दा उठाया था।