#NewsBytesExplainer: क्या है चुनावी बॉन्ड से जुड़ा विवाद, जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई?
चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो गई है। कई राजनीतियों पार्टियों और सामाजिक संगठनों ने चुनावी बॉन्ड को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई है। इससे पहले सोमवार को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि संविधान के अनुसार मतदाताओं को राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे के बारे में जानने का अधिकार नहीं है। आइए जानते हैं कि ये चुनावी बॉन्ड क्या है और इसे लेकर विवाद क्यों है।
क्या होता है चुनावी बॉन्ड?
चुनावी बॉन्ड एक साधा कागज होता है, जिस पर नोटों की तरह उसकी कीमत छपी होती है। केंद्र सरकार ने 2017 के बजट में इसकी घोषणा की थी, जिसे लागू 2018 में किया गया। ये बॉन्ड केवल भारतीय स्टेट बैंक (SBI) ही जारी कर सकता है। ये 1,000 से लेकर एक करोड़ रुपये तक के कई मूल्यवर्ग में खरीदे जा सकते हैं। SBI हर तिमाही में 10 दिन के लिए चुनावी बॉन्ड जारी करता है। ये ब्याज मुक्त होते हैं।
कौन खरीद सकता है चुनावी बॉन्ड और क्या है प्रक्रिया?
ये चुनावी बॉन्ड कोई भी व्यक्ति या कंपनी SBI से खरीदकर अपनी मनपंसद राजनीतिक पार्टी को चंद के तौर पर दे सकता है। कोई कितनी बार और कितने बॉन्ड खरीद सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं है। ये बॉन्ड जिस पार्टी के नाम पर लिए गए होते हैं ,उन्हें इन्हें 15 दिनों में अपने बैंक अकाउंट में भुनाना होता है। इस अवधि के खत्म होने के बाद बैंक बॉन्ड की धनराशि को प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा करा देते हैं।
किन-किन पार्टियों को मिल सकते हैं चुनावी बॉन्ड?
चुनावी बॉन्ड का लाभ पाने के लिए केवल वही पार्टी योग्य होती हैं, जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत पंजीकृत हैं। एक शर्त ये भी है कि पार्टी को पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट मिले हों। बॉन्ड पाने के लिए पार्टियों को अपने आधिकारिक बैंक खाते की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है। साथ ही चुनावी बॉन्ड से प्राप्त पैसों के खर्च का पूरा हिसाब भी आयोग को देना होता है।
क्या है चुनावी बॉन्ड को लेकर सरकार का तर्क?
केंद्र सरकार का कहना है कि चुनावी बॉन्ड राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे की प्रक्रिया में पारदर्शिता को बढ़ावा देते हैं। उसका तर्क है कि इसमें राजनीतिक पार्टियों को औपचारिक बैंकिंग चैनलों के माध्यम से दान प्राप्त होता है, जिसका सरकारी अधिकारियों द्वारा ऑडिट किया जा सकता है। सरकार के अनुसार, चुनावी बॉन्ड के जरिए पार्टियों को चंदा देने वालों की पहचान भी गोपनीय रहती है, जिससे दानकर्ता को राजनीतिक शत्रुता का सामना भी नहीं करना पड़ता है।
क्यों हो रहा चुनावी बॉन्ड का विरोध?
चुनावी बॉन्ड के विरोध का एक प्रमुख कारण धन के स्रोत के बारे में पारदर्शिता की कमी है। इसमें दानकर्ता की पहचान उजागर नहीं होती है, जिससे स्रोत का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। इससे राजनीतिक पार्टियों और कारोबारियों के गठजोड़ की संभावनाएं बढ़ जाती हैं और सरकारों के उन्हें चंदा देने वाले कारोबारियों/कंपनियों को अनुचित लाभ देने के बारे में पता नहीं चल पाता। बॉन्ड का इस्तेमाल कालेधन को सफेद करने के लिए होने का भी आरोप है।
2018 से अब तक कितने रुपये बॉन्ड बेचे गए?
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च, 2018 से जुलाई, 2023 के बीच कई राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बॉन्ड के रूप में 13,000 करोड़ रुपये का दान मिला है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2018 और 2022 के बीच SBI द्वारा 9,208 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड बेचे गए थे। इनकी 58 प्रतिशत राशि भाजपा को हासिल हुई, जबकि शेष राशि अन्य पार्टियों के हिस्से में आई। कांग्रेस को 10 प्रतिशत राशि मिली।
अज्ञात स्त्रोतों से मिलने वाले दान में चुनावी बॉन्ड की बड़ी हिस्सेदारी
मार्च, 2023 में ADR की एक रिपोर्ट में बताया गया कि 7 राष्ट्रीय पार्टियों को कुल आय का 66 प्रतिशत से अधिक हिस्सा चुनावी बॉन्ड और अज्ञात स्रोतों से मिला। इन पार्टियों को 2021-22 में अज्ञात स्रोतों से 2,172 करोड़ रुपये दान मिला, जिसमें से 83 प्रतिशत (1,811.94 करोड़ रुपये) चुनावी बॉन्ड के माध्यम से आया। अज्ञात स्त्रोत से मिलने वाले दान को भ्रष्टाचार और कालेधन को सफेद करने का एक प्रमुख स्त्रोत माना जाता है।