#NewsBytesExplainer: क्या होते हैं चुनावी बॉन्ड और ये सवालों के घेरे में क्यों थे?
सुप्रीम कोर्ट ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बड़ा फैसला सुनाते हुए चुनावी बॉन्ड पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। कोर्ट ने इस पूरी योजना को असंवैधानिक बताते हुए कई सख्त टिप्पणियां कीं। इसके साथ ही कोर्ट ने भारतीय स्टेट बैंक (SBI) से चुनावी बॉन्ड से मिले चंदे की सूची चुनाव आयोग को सौंपने और आयोग को ये सूची सार्वजनिक करने का निर्देश दिया है। आइए जानते हैं कि चुनावी बॉन्ड को लेकर पूरा विवाद क्या था।
सबसे पहले जानिए क्या होते हैं चुनावी बॉन्ड
चुनावी बॉन्ड एक सादा कागज होता है, जिस पर नोटों की तरह कीमत छपी होती है। इसे कोई भी व्यक्ति/कंपनी खरीदकर अपनी मनपंसद राजनीतिक पार्टी को चंदे के तौर पर दे सकता है। केंद्र सरकार ने 2017 के बजट में इसकी घोषणा की थी, जिसे लागू 2018 में किया गया। हर तिमाही में SBI 10 दिन के लिए चुनावी बॉन्ड जारी करता है। ये 1,000, 10,000, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपये की कीमत के होते हैं।
चुनावी बॉन्ड पर क्यों उठे सवाल?
चुनाव बॉन्ड को लेकर सबसे बड़ा सवाल गोपनीयता का है। दरअसल, बॉन्ड भुना रही पार्टी को ये नहीं बताना होता कि उसके पास ये बॉन्ड कहां से आया। दूसरी तरफ SBI को भी ये बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि उससे किसने कितने बॉन्ड खरीदे। जहां तक कि बॉन्ड में दानकर्ता शख्स या कंपनी का नाम भी नहीं होता है। इसका मतलब बॉन्ड के जरिए किसने किसे चंदा दिया, इसकी जानकारी पूरी तरह गुप्त रहती है।
बॉन्ड की जानकारी RTI के दायरे से बाहर
बॉन्ड की विश्वसनीयता को लेकर इसलिए भी सवाल उठते रहे हैं कि इस पूरी योजना को सूचना के अधिकार (RTI) से बाहर रखा गया है। राजनीतिक पार्टियां पहले से ही RTI के दायरे से बाहर हैं, यानी ये पूरी व्यवस्था एक तरह से गुप्तदान जैसी हो जाती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो चुनावी पारदर्शिता के लिए लाई गई ये योजना ही पारदर्शिता के गंभीर सवालों में उलझ गई थी।
कंपनियों से जुड़े दान से उठीं चिंताएं
चुनावी बॉन्ड के लिए सरकार ने कंपनी अधिनियम, 2013 में एक बड़ा बदलाव किया था। पहले नियम था कि कोई कंपनी तभी राजनीतिक चंदा दे सकती है, जब उसका पिछले 3 वर्षों का औसत लाभ 7.5 प्रतिशत हो। बॉन्ड में ये नियम हटा दिया गया। इससे शेल कंपनियों के जरिये पार्टियों को कालाधन देने की संभावना बढ़ गई। इसके अलावा सत्तारूढ़ पार्टी के चंदे के बदले में कंपनियों को लाभ पहुंचाने और इसके उजागर न होने की संभावना भी बढ़ीय़
सत्ताधारी पक्ष को फायदे के भी आरोप
दरअसल, दानदाताओं की जानकारी SBI के पास मौजूद होती हैं। इससे आशंका जताई जाती है कि सत्ताधारी पार्टी इसका इस्तेमाल दानदाताओं पर दबाव बनाने के लिए कर सकती है। विपक्षी पार्टियों का कहना है कि बॉन्ड योजना से सत्ताधारी पक्ष को ज्यादा चंदा मिलेगा। आंकड़े भी कुछ इसी ओर इशारा करते हैं क्योंकि योजना लागू होने के बाद से दान का एक बड़ा हिस्सा सत्ताधारी पार्टी भाजपा को ही मिला है।
RBI और चुनाव आयोग ने भी उठाए थे सवाल
योजना पर भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) और चुनाव आयोग दोनों ने आपत्ति दर्ज कराई थी। RBI के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने वित्त मंत्रालय को चिट्ठी लिख कहा था कि बॉन्ड से मनी लॉन्ड्रिंग को बढ़ावा मिल सकता है और बैंकनोट पर भरोसा कम होगा। 2019 में चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर बॉन्ड को भारत के चुनावों के लिए खतरनाक माना था। आयोग ने कहा था कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता खत्म हो जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों लगाई रोक?
ऊपर हमने बॉन्ड से जुड़ी जिन चिंताओं का जिक्र किया है, सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी उन्हीं मुद्दों के आसपास है। कोर्ट ने योजना को RTI और अनुच्छेद 19(1)(A) का उल्लंघन करने वाला बताया। कोर्ट ने कहा कि नागरिकों को राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले पैसे का स्त्रोत जानने का अधिकार है। कंपनियों से मिलने वाले चंदे पर कोर्ट ने कहा कि ये पूरी तरह व्यावसायिक लेनदेन है और इसके बदले राजनीतिक पार्टियां कंपनियों को लाभ पहुंचाती हैं।
न्यूजबाइट्स प्लस
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के मुताबिक, वित्त वर्ष 2017 से 2021 तक बॉन्ड के जरिये 9,188 करोड़ रूपये का चंदा पार्टियों को मिला। इसका 57 प्रतिशत पैसा भाजपा के पास आया है। बीते 5 सालों में भाजपा को 5,272 करोड़, कांग्रेस को 952 करोड़ और लगभग 3,000 करोड़ रूपये 29 अलग-अलग पार्टियों को मिले हैं। मार्च, 2022 से मार्च, 2023 तक कुल 2,800 करोड़ रुपये के बॉन्ड बेचे गए, जिसमें से 46 प्रतिशत भाजपा को मिले।