तमिलनाडु: "हिंदी थोपने" का विरोध करते हुए 85 वर्षीय किसान ने लगाई खुद को आग, मौत
तमिलनाडु में आज एक 85 वर्षीय किसान ने केंद्र सरकार के "हिंदी थोपने" का विरोध करते हुए आत्मदाह कर लिया। थंगावेल नामक इस किसान ने सुबह लगभग 11 बजे थलैयार स्थित द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) के पार्टी कार्यालय के सामने आत्मदाह किया। उनकी मौके पर ही मौत हो गई। थंगावेल को DMK का सक्रिय सदस्य बताया जा रहा है और वह पार्टी के कृषि संघ आयोजक रहे थे। वह हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाने के कदम से परेशान थे।
क्या है हिंदी थोपने का मामला?
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाली संसदीय राजभाषा समिति की रिपोर्ट के बाद दक्षिणी राज्यों में एक बार फिर से हिंदी विरोध का भूत खड़ा हो गया है। इस रिपोर्ट में हिंदी भाषी राज्यों में स्थित केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में हिंदी और गैर-हिंदी भाषी राज्यों में स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की सिफारिश की गई है। इसके अलावा केंद्रीय भर्तियों की परीक्षाओं में अंग्रेजी की जगह हिंदी का इस्तेमाल करने की सिफारिश भी की गई है।
तमिलनाडु और केरल के मुख्यमंत्री कर चुके हैं समिति की सिफारिश का विरोध
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने खुलेआम केंद्र सरकार के इस कदम का विरोध किया है। उनका कहना है कि समिति की सिफारिश गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने वाली है और केंद्र सरकार को संविधान की आठवीं अनुसूची में बताई गई सभी 22 भाषाओं के साथ एक समान व्यवहार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्न पत्र भी सभी भाषाओं में तैयार किए जाने चाहिए।
हिंदी थोपने के खिलाफ प्रस्ताव जारी कर चुकी है तमिलनाडु सरकार
तमिलनाडु सरकार ने विधानसभा में "हिंदी थोपने" के खिलाफ प्रस्ताव भी पारित किया है। इस प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान बोलते हुए मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा था कि अंग्रेजी को हटाने का सरकार का निर्णय अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी को इसके स्थान पर पेश करना है। उन्होंने आरोप लगाया था कि भाजपा देश को तीन अलग-अलग हिस्सों में बांटने की साजिश कर रही है, जिनमें अधिक हिंदी, कम हिंदी और बिल्कुल हिंदी न बोलने वाले हिस्से शामिल हैं।
क्या संसदीय समिति की सिफारिशों को मानना अनिवार्य है?
संसदीय राजभाषा समिति की सिफारिशों के विरोध के बाद सबसे बड़ा सवाल उठता है कि क्या उसकी सिफारिशें बाध्यकारी हैं? इसका जवाब है, नहीं। दरअसल, 30 सदस्यीय यह समिति हर पांच साल में राजभाषा के विकास को लेकर अपनी सिफारिशें जारी करती है और उन्हें मानना या नकारना राष्ट्रपति के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है। अभी तक राष्ट्रपति ने इन सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया है और विरोध को देखते हुए ऐसा होता मुश्किल भी लग रहा है।