तमिलनाडु में क्या है हिंदी पर विवाद, जिसे लेकर विधानसभा में पारित किया गया है प्रस्ताव?
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली संसदीय राजभाषा समिति द्वारा केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने की सिफारिश ने हिंदी के विरोध की आग को फिर से भड़का दिया है। इसको लेकर तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार ने मंगलवार को विधानसभा में 'हिंदी थोपने' के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर दिया। ऐसे में आइए जानते हैं कि तमिलनाडु में क्या है हिंदी को लेकर विवाद और यह कब से चला आ रहा है।
संसदीय समिति ने क्या की थी सिफारिश?
संसदीय राजभाषा समिति ने 9 अक्टूबर को सिफारिश की थी कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत हिंदी भाषी राज्यों के के्रदीय शिक्षण संस्थानों में शिक्षा का माध्यम हिंदी और अन्य राज्यों में स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देते हुए अंग्रेजी को वैकल्पिक विषय बनाना चाहिए। इसी तरह समिति ने केंद्रीय सेवाओं में भर्ती के लिए आयोजित परीक्षाओं में हिंदी का इस्तेमाल करने और अंग्रेजी को हटाने की सिफारिश की थी। समिति ने कहा था हिंदी का ज्ञान भी जरूरी है।
किन राज्यों ने किया सिफारिश का विरोध?
संसदीय समिति की सिफारिश सामने आते ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने इसका विरोध कर दिया। उन्होंने कहा कि समिति की सिफारिश गैर हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी को थोपने वाली है। सरकार को संविधान की आठवीं अनुसूची के तहत बताई गई सभी 22 भाषाओं के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। इसी तरह प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए प्रश्न पत्र सभी भाषाओं में तैयार किए जाने चाहिए।
तमिलनाडु सरकार ने पारित किया प्रस्ताव
तमिलनाडु सरकार ने संसदीय समिति की सिफारिश को लेकर विधानसभा में 'हिंदी थोपने' के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर दिया। इस दौरान मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा कि सिफारिशें तमिल सहित सभी राज्यों की भाषाओं के खिलाफ हैं। यह सिफारिश पेरारिग्नर अन्ना द्वारा अगस्त हाउस में पारित की गई दो-भाषा नीति का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी को हटाने का सरकार का निर्णय अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी को इसके स्थान पर पेश करना है।
स्टालिन ने भाजपा पर लगाया देश को विभाजित करने का आरोप
प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री स्टालिन ने आरोप लगाया कि भाजपा देश को तीन अलग-अलग हिस्सों में विभाजित करने की कोशिश कर रही है। इसमें अधिक हिंदी बोलने वाले लोग, कम हिंदी बोलने वाले लोग और हिंदी न बोलने वाले लोग शामिल है। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु इसमें तीसरी श्रेणी में आता है। ऐसे में राज्य को लोगों को तीसरे दर्जे का नागरिक बनाने के लिए उठाए जा रहे कदमों के खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है।
तमिलनाडु में कब हुई थी हिंदी के विरोध की शुरुआत?
तमिलनाडु में हिंदी के विरोध की शुरुआत आजादी से पहले यानी अगस्त 1937 में हुई थी। उस दौरान सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने का निर्णय किया था। इसको लेकर मद्रास प्रेसीडेंसी में शामिल ईवी रामासामी और जस्टिन पार्टी ने विरोध किया था और यह आंदोलन में बदल गया। यह आंदोलन तीन सालों तक चला था। इसमें दो प्रदर्शनकारियों की मौत हुई थी और 1,000 लोगों की गिरफ्तारी हुई थी।
1939 में आदेश की वापसी के बाद थमा था आंदोलन
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध में भारत को एक पक्ष बनाने के ब्रिटेन के फैसले का विरोध करते हुए राजगोपालाचारी सरकार ने इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने हिंदी को अनिवार्य बनाने का आदेश वापस लेकर आंदोलन को शांत किया था।
1950 के बीच फिर हुआ हिंदी का विरोध
हिंदी विरोधी आंदोलन का दूसरा चरण 1950 में सरकार के स्कूलों में हिंदी को वापस लाने और 15 साल बाद अंग्रेजी को खत्म करने का निर्णय करने पर शुरू हुआ था। हालांकि, बाद में एक समझौते में हिंदी को वैकल्पिक विषय बनाने का फैसला कर विरोध खत्म किया गया था। इसी तरह 1953 में DMK ने कल्लुकुडी का नाम बदलकर डालमियापुरम (उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया के नाम पर) करने का विरोध कर फैसले को उत्तर द्वारा दक्षिण का शोषण बताया था।
नेहरू के आश्वासन के बाद शांत हुआ था विरोध
हिंदी के खिलाफ बढ़ते विरोध के बीच 1959 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में आश्वासन दिया था कि गैर-हिंदी भाषी लोग अपनी इच्छानुसार अंग्रेजी का उपयोग जारी रख सकेंगे। इससे विरोध तो थम गया था, लेकिन 1963 में राजभाषा अधिनियम के पारित होते ही अन्नादुरई के नेतृत्व में DMK सरकार ने विरोध शुरू कर दिया। DMK के एक कार्यकर्ता ने आत्मदाह भी कर लिया था। उसके बाद अंग्रेजी, तमिल और हिंदी भाषा का फार्मूला पेश किया गया था।
1965 में फिर भड़की विरोध की आग
जनवरी 1965 में हिंदी को केंद्र की आधिकारिक भाषा बनने के खिलाफ तमिलनाडु में फिर से विरोध की आग भड़क गई। सीएन अन्नादुरई ने 25 जनवरी, 1965 को 'शोक दिवस' के रूप में मनाने का ऐलान किया। मदुरै में हिंसा भड़क गई और रेलवे के डिब्बों और हिंदी बोर्डों को आग लगा दी गई। सरकार ने पुलिस बल की मदद से विरोध दबाने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। उस हिंसा में करीब 70 लोगों की मौत हुई थी।
राजनीति पर भी दिखा था विरोध का असर
1965 के विरोध का असर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली सरकार पर भी पड़ा था। उनके दो मंत्री सी सुब्रमण्यम और ओवी अलागेसन ने इस्तीफा दे दिया। प्रधानमंत्री ने उन्हें स्वीकार कर राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन को भेज दिया, लेकिन उन्होंने इस्तीफों को स्वीकार नहीं किया और प्रधानमंत्री को मामले को न बढ़ाने की सलाह दी। उसके बाद प्रधानमंत्री ने अंतर्राज्यीय संचार और सिविल सेवा परीक्षाओं में अंग्रेजी जारी रखने का निर्णय किया था।
1967 में इंदिरा गांधी ने नेहरू के आश्वासन को दी थी मजबूती
1967 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजभाषा अधिनियम, 1967 में संशोधन के माध्यम से नेहरू के 1959 के आश्वासनों को और सुरक्षा प्रदान करते हुए मजबूती दी थी। इसका कारण था कि DMK के विरोध ने राज्य में कांग्रेस का सफाया कर दिया था।
क्या संसदीय समिति की सिफारिश बाध्यकारी है?
अब संसदीय समिति की सिफारिश ने फिर से विरोध की चिंगारी भड़का दी है। हालांकि, सवाल है कि क्या यह सिफारिश बाध्यकारी है? तो ऐसा नहीं है। 30 सदस्यीय (20 लोकसभा और 10 राज्यसभा) समिति हर पांच साल में राजभाषा के विकास को लेकर अपनी सिफारिश करती है और उसे मानना या नकारना राष्ट्रपति के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है। ऐसे में महज सिफारिश के आधार पर विरोध करना या प्रस्ताव पारित करना पूरी तरह से जायज नहीं है।