#NewsBytesExplainer: हिंदी सिनेमा में कब और कैसे हुई फिल्म स्टूडियो की शुरुआत? जानिए कैसा रहा सफर
हिंदी फिल्म उद्योग को बॉलीवुड के नाम से पहचाना जाता है। यहां हर साल सैकड़ों फिल्में बनती हैं, जो लोगों का मनोरंजन करती हैं। 1913 में पहली मूक फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के निर्माण से लेकर सिनेमा को रंग और आवाज मिलने तक का सफर काफी शानदार रहा है। इस सफर में फिल्म स्टूडियो का भी खास योगदान है, जिनकी बदौलत निर्माताओं को फिल्म बनाने के लिए सुविधाएं मिलती हैं। आइए इंडस्ट्री में फिल्म स्टूडियो के सफर पर गौर फरमाते हैं।
क्या होते हैं फिल्म स्टूडियो ?
आसान शब्दों में कहे तो फिल्म स्टूडियो एक ऐसी जगह है, जहां फिल्मों की शूटिंग होती है और मेकर्स के पास पर्याप्त जगह के साथ ही उपकरण मौजूद रहते हैं। ये फिल्म स्टूडियो कई एकड़ में फैले होते हैं और इनमें अलग-अलग सेट बनाए जाते हैं। साथ ही खुले में शूटिंग करने के लिए खाली जगह भी मुहैया कराई जाती है। यहां कलाकार, तकनीशियन, साउंड स्टूडियो, एडिटिंग सहित सभी विभाग के लोग एक ही छत के नीचे काम करते हैं।
फिल्म स्टूडियो से होते हैं ये फायदे
स्टूडियो में शूटिंग करना बाहर शूटिंग करने से काफी आसान होता है। स्टूडियो में लाइट पर नियंत्रण रखा जाता है और जब जैसी भी लाइट की जरूरत हो उसका इस्तेमाल हो सकता है। शूटिंग करते समय बाहरी आवाज नहीं आती और न ही मौसम की चिंता सताती है। यहां सेट डिजाइनर की भूमिका बढ़ जाती है और उसे स्टूडियो में सबकुछ समय पर तैयार करना होता है। इसके अलावा एक जगह से दूसरी जगह जाने वाला समय बर्बाद नहीं होता।
यह था पहला फिल्म स्टूडियो
1929 में निर्देशक वी शांताराम ने विजी डामले, केआर ढेबर, एसबी कुलकर्णी और एस फतेलाल के साथ कोल्हापुर, महाराष्ट्र में प्रभात कंपनी की स्थापना की। 1931 में जब 'आलम आरा' से सिनेमा को आवाज मिली तो कंपनी को पुणे में स्थानांतरित कर प्रभात स्टूडियो बनाया गया। इसके बाद प्रभात स्टूडियो में बोलने वाली फिल्में बनने लगीं। इसमें कई शानदार फिल्में बनीं, लेकिन 1941 में शांताराम इससे अलग हो गए और 1952 में प्रभात कंपनी समेत स्टूडियो को नीलाम करना पड़ा।
न्यूजबाइट्स प्लस
प्रभात स्टूडियो की जमीन पर भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII) का निर्माण हुआ है। स्टूडियो के आधे हिस्से को सिनेमा प्रेमियों के लिए म्यूजियम में तब्दील किया है। स्टूडियो ने 'अयोध्या का राजा', 'अमर ज्योति' और 'अमृत मंथन' जैसी बेहतरीन फिल्में बनाई थीं।
1943 में 2 स्टूडियो के आगमन से हिंदी सिनेमा में आई रौनक
1943 में महबूब स्टूडियो और शशधर मुखर्जी के फिल्मिस्तान स्टूडियो की स्थापना हुई, जिसने हिंदी सिनेमा में रौनक ला दी। मेहबूब स्टूडियो ने 'मदर इंडिया' (1957), 'अनमोल घड़ी' (1946), 'अंदाज' (1949) और 'कागज के फूल' (1959) जैसी शानदार फिल्में बनाईं। इसके अलावा फिल्मिस्तान स्टूडियो 'शहीद' (1948), 'शबनम' (1949) और 'नागिन' (1954) जैसी फिल्में बनाने के लिए जाना गया। मालूम हो कि पांच एकड़ में फैले फिल्मिस्तान स्टूडियो में शूटिंग के लिए 7 मंजिल, मंदिर और मैदान बनाया गया था।
धीरे-धीरे बढ़ी फिल्म स्टूडियो की संख्या
इसके बाद धीरे-धीरे इंडस्ट्री में स्टूडियो की मांग बढ़ने लगी, जिसके बाद इनकी संख्या में इजाफा होने लगा। 1931 में बीएन सरकार ने न्यू स्टूडियो खोला था। मशहूर अभिनेता केएल सहगल और बिमल रॉय इसी स्टूडियो की देन हैं। 1933 में जे.बी.एच. वाडिया और होमी वाडिया ने वाडिया मूवीटोन स्टूडियो की स्थापना की। देविका रानी और हिमांशु राय भी 1935 में बॉम्बे टॉकीज लेकर आए। इसने अशोक कुमार, दिलीप कुमार और देव आनंद जैसे सितारे इंडस्ट्री को दिए थे।
एक हादसे की वजह से बेचना पड़ा आरके स्टूडियो
1948 में राज कपूर ने आरके स्टूडियो की स्थापना की, जो लगभग दो एकड़ जमीन में बना था। इसने 'आग' (1948), 'बरसात' (1949), 'आवारा' (1951), 'बूट पॉलिश', 'जागते रहो' और 'श्री 420' जैसी सफल फिल्में बनाई थीं। हालांकि, 2017 में आरके स्टूडियो में रियलिटी शो 'सुपर डांसर' की शूटिंग के दौरान आग लग गई और यह बुरी जलकर नष्ट हो गया। इसके बाद कपूर परिवार ने बढ़ते घाटे को ध्यान में रखते हुए स्टूडियो को बेच दिया।
शांताराम ने प्रभात स्टूडियो से अलग होकर बनाया राजकमल
प्रभात स्टूडियो से अलग होने के बाद शांताराम ने 1942 में अपना खुद का स्टूडियो राजकमल कलामंदिर शुरू किया, जिसमें हिंदी और मराठी में फिल्में बनाई गईं। इस स्टूडियो के लिए शांताराम ने गानों के साथ ही नई तकनीक पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया। ऐसे में राजकमल देश के सबसे अत्याधुनिक स्टूडियो में शामिल हो गया। इसने 'अमर भूपाली' (1951), 'झनक झनक पायल बाजे' (1955), 'दो आंखें बारह हाथ' (1957), 'नवरंग' (1959) और 'पिंजरा' (1972) जैसी फिल्में बनाईं।
ये भी हैं कुछ मशहूर स्टूडियो
देव आनंद और उनके भाई चेतन आनंद ने 1949 में नवकेतन फिल्म्स की शुरुआत की, जिसके तहत 32 फिल्में बनाई गईं। इसकी आखिरी फिल्म 2011 में आई 'चार्जशीट' थी। इसके बाद 1953 में बिमल रॉय प्रोडक्शन, 1954 में गुरु दत्त फिल्म्स, 1955 में बीआर फिल्म्स और 1961 में नासिर हुसैन फिल्म्स की शुरुआत हुई। इन सभी ने 'दो बीघा जमीन' (1953), 'देवदास' (1955), 'यादों की बारात' (1973) और 'हम किसी से कम नहीं' (1977) जैसी कई शानदार फिल्में बनाई गईं।
इन फिल्मों की स्टूडियो में हुई शूटिंग
संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म 'सांवरिया', 'देवदास' और 'बाजीराव मस्तानी' की शूटिंग स्टूडियो में एक शानदार सेट बनाकर की थी। 'जोधा अकबर' और 'कलंक' भी इसमें शामिल है। मालूम हो कि सेट का निर्माण करने में करोड़ों रुपये की लागत आती है।