#NewsBytesExplainer: भारतीय सिनेमा को कब मिली आवाज? जानिए पहली फिल्म 'आलम आरा' बनने की पूरी कहानी
भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म 'आलम आरा' ने अपनी रिलीज के 92 साल पूरे कर लिए हैं। यही वो महीना था, जब भारतीय सिनेमा की खामोशी टूटी थी। इस फिल्म से जुड़ी आपने कई बातें सुनी होंगी, लेकिन आज हम आपको इसके बारे में वो सब बताएंगे, जिससे शायद आप अभी तक अनजान होंगे। इसका पहला शो देखने के लिए सिनेमाघर के बाहर ऐसी भीड़ जुटी कि पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। आइए जानते हैं ऐसे ही कई अनकहे किस्से।
हॉलीवुड की बोलती फिल्मों से आकर्षित होने लगे थे भारतीय
भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के ने फिल्मों में आवाज डालने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। उन्होंने कई कोशिशें कीं, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। 14 मार्च, 1931 को भारतीय सिनेमा ने बोलना सीखा था और इसी के साथ दर्शकों को 'आलम आरा' की सौगात मिली थी। उस दौर में हॉलीवुड की बोलती फिल्में भारत में आने लगी थीं। लिहाजा भारतीयों में अपनी फिल्मों को लेकर दिलचस्पी धीरे-धीरे कम होने लगी थी।
भारतीय सिनेमाघर में पहली बोलती फिल्म की दस्तक
रिपोर्ट्स के मुताबिक, मुंबई में पहली बार बोलती फिल्म का प्रदर्शन 1927 में हुआ। रॉयल ओपेरा हाउस में आई फिल्म 'शो बॉट' देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ी थी। इसी से निर्देशक अर्देशिर ईरानी को प्रेरणा मिली। उन्होंने कुछ बड़ा करने का सपना देखा।
इन तीन कंपनियों के बीच थी प्रतिस्पर्धा
ईरानी यह बखूबी समझ चुके थे कि भारत में बोलती फिल्मों को लेकर दर्शक किस कदर उत्साहित हैं, इसलिए उन्होंने ऐसी फिल्म बनाने का फैसला किया, जिसमें आवाज हो। उन्हीं की प्रोडक्शन कंपनी इंपीरियल के बैनर तले इसका निर्माण हुआ। जिस समय ईरानी 'आलम आरा' बना रहे थे, उसी समय कृष्णा फिल्म कंपनी, मदन थिएटर्स जैसी दो प्रोडक्शन कंपनियां भी बोलती फिल्म बनाने की कोशिश में थीं, लेकिन आखिरकार 'आलम आरा' ही भारत की पहली बोलती फिल्म बनी।
ईरानी ने फिल्म के लिए खेला था बड़ा दांव
ईरानी ने पूरी यूनिट को मना कर रखा था कि कभी किसी से भी, कोई भूल के भी ये जिक्र न कर दे कि वह एक बोलती फिल्म शूट कर रहे हैं। जब तक 'आलम आरा' बनके तैयार नहीं हो गई, किसी को कानों-कान खबर नहीं थी कि ईरानी ने 78 कलाकारों के साथ एक बोलती फिल्म बना ली है। वह इसे भारत की पहली बोलती फिल्म बनाने के लिए जल्द से जल्द इसकी शूटिंग खत्म करना चाहते थे।
'78 मुर्दे इंसान जिंदा हो गए'
फिल्म के प्रचार के दौरान निर्माताओं ने टैगलाइन का इस्तेमाल किया, 'आल लिविंग, ब्रीथिंग, 100 परसेंट टाकिंग।' हिंदी में इसे लिखा गया, '78 मुर्दे इंसान जिंदा हो गए। उनको बोलते देखो' 'आलम आरा' के लिए 78 कलाकारों ने अपनी आवाजें रिकॉर्ड की थीं। ब्लैक-एंड-वाइट फिल्मों के दौर में इससे पहले दर्शक कलाकारों के चेहरे के हाव-भाव पढ़कर फिल्म की कहानी समझते थे, लेकिन 'आलम आरा' ने दर्शकों को बताया कि पर्दे पर हिलते-डुलते काले-सफेद किरदार बोल भी सकते हैं।
रिकॉर्डिंग में लगी कई गुना ज्यादा मेहनत
बोलती फिल्म बनने से बेशक भारतीय सिनेमा में बदलाव की बयार आई, लेकिन यह अपने साथ कई चुनौतियां लेकर आईं। सबसे ज्यादा दिक्कतें रिकॉर्डिंग में आईं, क्योंकि शूटिंग के दौरान आसपास में इतनी आवाजें आती थीं कि वो भी साथ में रिकॉर्ड हो जाती थीं, इसलिए कई दृश्यों की शूटिंग रात में हुई। इसमें विदेश से मंगवाए गए तनार सिंगल-सिस्टम कैमरा का इस्तेमाल किया गया, जो सीधे फिल्म में आवाज को भी रिकार्ड कर सकता था।
फिल्म बनाने में आईं अन्य बाधाएं
तनार सिंगल सिस्टम कैमरे में एक ही ट्रैक पर साउंड और फिल्म रिकॉर्ड होती थी, इसलिए कलाकारों को एक ही टेक में शॉट देना पड़ता था। डबिंग की तकनीक का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। फिल्म के ज्यादातर कलाकार मूक फिल्मों के थे। उन्हें बोलती फिल्म में काम करने का कोई अनुभव नहीं था। उन्हें घंटों तक सिखाया जाता था कि माइक पर कैसे बोलना है। उस वक्त कलाकारों को तकनीकी बारीकियां सिखाना और समझाना भी एक चुनौती थी।
लीक से हटकर उठाया जोखिम
इस फिल्म से पहले भारत में बनने वालीं मूक फिल्में पौराणिक कहानियों के इर्द-गिर्द होती थीं। ईरानी ने उस लीक से अलग जोसेफ डेविड के एक लोकप्रिय पारसी नाटक को चुनकर बड़ा जोखिम उठाया था, जिससे वह बेहद प्रभावित थे। 'आलम आरा' में उन्होंने हिंदी और उर्दू का मिश्रण रखा। उन्हें यकीन था कि ऐसा करने से फिल्म व्यापक रूप से दर्शकों तक पहुंचेगी। इसकी कहानी एक राजकुमार और एक बंजारन लड़की के बीच प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द बुनी गई।
हिंदी सिनेमा की पहली नायिका
'आलम आरा' की अभिनेत्री की तलाश मुश्किल नहीं थी। सुलोचना उर्फ रूबी मायर्स पहले से ईरानी की फिल्मों में काम कर रही थीं और उन्हें अभिनेत्री लेना लगभग तय था, लेकिन सुलोचना न तो हिंदी ठीक से बोल पाती थीं, ना ही उर्दू और ना ही फिल्मवालों की हिन्दुस्तानी जबान। इसके बाद ईरानी ने अभिनेत्री जुबैदा को साइन किया, जो निर्माता और अभिनेत्री फातिमा बेगम की बेटी थीं। फिल्म में मास्टर विट्ठल और पृथ्वीराज कपूर भी अहम भूमिका में थे।
पर्दे पर पहली बार किसी महिला ने किया था किस
जुबैदा ने फिल्मों में काम करना उस वक्त शुरू किया, जब महिलाओं के लिए यह पेशा अच्छा नहीं माना जाता था। उन्होंने ही दूसरी महिलाओं के लिए फिल्मी दुनिया में दरवाजे खोले। जुबैदा हिंदी सिनेमा की पहली नायिका थीं, जिन्होंने पर्दे पर किस किया था।
ब्लैक में बिके टिकट
उस दौर में सिनेमाघरों में जाकर फिल्में देखना बड़ी बात थी, लेकिन यह फिल्म देखने के लिए मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा हॉल में इतने लोग इकट्ठे हो गए कि भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। शो 3 बजे शुरू होना था, लेकिन लोग सुबह 9 बजे ही सिनेमा हॉल के बाहर जमा हो गए। फिल्म की दीवानगी का आलम यह था कि इसके टिकट लोगों ने ब्लैक में 50-50 रुपये में खरीदे थे।
कोई भी प्रिंट मौजूद नहीं
दुर्भाग्य से अब इस फिल्म का एक भी प्रिंट नहीं बचा है। अगर अब आप इस फिल्म को देखना चाहें तो नहीं देख सकते। दरअसल, उस समय फिल्म के नेगेटिव बहुत ज्यादा दिन नहीं चलते थे। 'आलम आरा' के बहुत सीमित प्रिंट बने थे, वहीं न तो उस वक्त फिल्म आर्काइव जैसी कोई संस्था थी। इस तरह भारतीय सिनेमा की इस ऐतिहासिक फिल्म का कोई प्रिंट मौजूद नहीं है। अब यह सिर्फ तस्वीरों के माध्यम से याद की जाती है।
भारतीय सिनेमा का पहला गाना
इस फिल्म में 7 गाने थे। इसका 'दे दे खुदा के नाम पे' को भारतीय सिनेमा का पहला गाना माना जाता है, जिसे वजीर मोहम्मद खान ने गाया था और यह हिट हुआ था। वजीर फिल्म में एक फकीर की भूमिका में नजर आए थे।