तालिबान के खिलाफ बिना लड़े ही क्यों पस्त हुई अफगान सेना?
अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद अब तालिबान सरकार बनाने की कोशिश में जुट गया है। जिस गति से तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया है, उसने अमेरिका समेत कई देशों और विशेषज्ञों को भी चौंका दिया है। इस बीच यह भी सवाल उठ रहा है कि अफगानिस्तानी सेना ने बिना लड़े ही तालिबान के सामने हथियार क्यों डाल दिए, जबकि उसके सैनिकों की संख्या लड़ाकों से कई गुना थी? आइये, इस सवाल का जवाब जानते हैं।
लड़ाकों से चार गुना थी सैनिकों की संख्या
कई समीक्षक अभी तक उन कारणों को समझने की कोशिश रहे हैं, जिनके चलते अफगान सेना मैदान छोड़कर भाग गई। यह तब है, जब कई सालों तक उसकी अमेरिका के साथ ट्रेनिंग हुई है और अमेरिका ने उसे हथियार भी दिए हैं। संख्याबल के हिसाब से देखें तो तालिबान के लड़ाकों की संख्या करीब 80,000 है। इसकी तुलना में अफगानिस्तान की सेना में तीन लाख से अधिक सैनिक हैं। इसके बावजूद सेना तालिबान को कब्जे से नहीं रोक सकी।
नाटो का हवाई समर्थन न मिलना
पिछले दो दशकों से तालिबान के खिलाफ लड़ाई में नाटो की हवाई शक्ति का अहम योगदान रहा है। अफगान सेनाएं इस लड़ाई में नाटो और अमेरिका की वायुसेना की मदद से आगे बढ़ती रही थी। नाटो की वापसी के साथ ही अफगान सेना पिछड़ने लगी।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
DW से बात करते हुए काबुल के एक सुरक्षा विशेषज्ञ मोहम्मद शफीक हमदम ने कहा कि अफगान की सेना आर्थिक और सैन्य रूप से अमेरिका पर निर्भर थी। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही उसकी खामियां सामने आने लगीं। एक और विशेषज्ञ अतिकुल्ला अमरखैल ने कहा कि नाटो सेना की वापसी ने तालिबान के हौसले बढ़ा दिए थे। तालिबान को भरोसा था कि सैनिकों की वापसी के बाद वो गनी सरकार को आराम से गिरा सकता है।
पस्त थे अफगान सेना के हौसले
समीक्षकों का कहना है कि हौसले की कमी और भ्रष्टाचार अफगान सेना की हार की बड़ी वजहें रहीं। तालिबान के साथ अमेरिका के समझौते ने अफगान सेना को निराश कर दिया था। बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद अफगानिस्तान को लगा कि वो सेना वापस बुलाने में समय ले सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत अमेरिका ने अफगानिस्तान छोड़ दिया। अफगान सेना अचानक अमेरिका और नाटो सैनिकों की वापसी के लिए तैयार नहीं थी।
चेकपोस्ट्स तक खाना नहीं पहुंचा पा रही थी सेना
अमेरिका की काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स की एक रिपोर्ट कहती है कि अफगानिस्तान सेना देशभर में फैली अपने चेकपोस्ट्स पर खाने जैसी जरूरी सुविधाएं मुहैया कराने में भी असफल रही। हालातों को देखते हुए अफगान सेना के अधिकतर अधिकारियों और सैनिकों ने तालिबान के साथ समझौता कर लिया था। रिपोर्ट के अनुसार, अपनी जिंदगी को दांव पर लगाने की जगह या तो उन्होंने सरेंडर कर दिया और कहीं भाग गए। सिर्फ कमांडो यूनिट ही तालिबान से लड़ रही थी।
सेना में चरम पर था भ्रष्टाचार
द वॉशिंगटन पोस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था अफगानिस्तान के 3.52 लाख सैनिक और पुलिसकर्मियों में से केवल 2.54 लाख की ही पुष्टि हो सकी है। कमांडरों ने पैसा खाने के लिए कागजों पर सैनिक दिखा दिए, जबकि वो सैनिक असल में थे ही नहीं। इन्हें 'घोस्ट सोल्जर' कहा जाता है। इसके अलावा कई कमांडरों ने जमीन पर लड़ रहे सैनिकों को पूरा वेतन जारी नहीं होने दिया और उन तक जरूरी सुविधाएं भी नहीं पहुंचाई गई।
विचारधारा और उद्देश्य की कमी भी बड़े कारण
अफगान सेना की पराजय के पीछे एक और बड़ा कारण सैनिकों में काबुल की केंद्रीय सरकार के मुकाबले अपनी जनजातियों और क्षेत्रों के प्रति ज्यादा वफादारी होना रहा। इसके विपरीत तालिबान के लड़ाके एक इस्लामी उग्रवादी विचारधारा में बंधे हुए थे। 2001 में सत्ता से बाहर होने के बाद भी तालिबान ने कहा कि वो अपनी इस्लामिक विचारधारा नहीं छोड़ेगा और 'पश्चिमी साम्राज्यवादियों' और आक्रमणकारियों को अफगानिस्तान से बाहर निकालने के लिए किसी भी हद तक जाएगा।
सैन्य कमांडरों पर जमकर बरसे बाइडन
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अपने पहले संबोधन में राष्ट्रपति जो बाइडन अमेरिकी ट्रेनिंग के बावजूद तालिबान का मुकाबला करने में नाकाम रहने के लिए अफगान सरकार और सैन्य कमांडरों पर जमकर बरसे। उन्होंने कहा, "हमने उन्हें अपना खुद का भविष्य तय करने का हर मौका दिया था। लेकिन हम उन्हें उस भविष्य के लिए लड़ने की इच्छाशक्ति प्रदान नहीं कर सकते।" अमेरिका ने अफगान सैनिकों पर कई बिलियन डॉलर खर्च किए हैं।