कोरोना वायरस: क्यों विनाशकारी साबित हो सकती है वैक्सीन को लेकर जल्दबाजी?
कोरोना वायरस महामारी ने पूरी दुनिया को घुटनों पर ला दिया है और वैक्सीन को इस महामारी से निकलने का एकमात्र रास्ता माना जा रहा है। वैक्सीन को लेकर इतनी जल्दबाजी देखने को मिल रही है कि रूस ने बिना ट्रायल पूरे किए ही अपनी वैक्सीन लॉन्च कर दी है। अन्य देशों में भी ऐसी ही जल्दबाजी देखने को मिल रही है, हालांकि वैक्सीन के मामले में ये जल्दबाजी बेहद खतरनाक हो सकती है। कैसे, आइए जानते हैं।
सबसे पहले जानिए क्या होती है वैक्सीन और ये कैसे काम करती है
वैक्सीन हमारे इम्युन सिस्टम में कुछ मॉलिक्यूल्स, जिन्हें वायरस के एंटीजंस भी कहा जाता है, भेजने का एक जरिया है। आमतौर पर ये एंटीजंस कमजोर या निष्क्रिय वायरस होता है ताकि हमें बीमार न कर सके। इनके शरीर में दाखिल होने पर इम्युन सिस्टम इन्हें असली वायरस समझ एंटीबॉडीज बनाना शुरू कर देता है। आगे चलकर अगर हम असली वायरस से संक्रमित होते हैं तो ये एंटीबॉडीज वायरस को मार देती हैं और हम बीमारी से बच जाते हैं।
इसलिए किए जाते हैं ट्रायल
चूंकि वैक्सीन के जरिए इंसान के शरीर में कोई चीज दाखिल की जाती है, इसलिए कुछ भी इधर से उधर होने पर बड़ा खतरा हो सकता है। यही कारण है कि वैक्सीन कितनी सुरक्षित और प्रभावी है, यह जांचने के लिए इसका जानवरों से लेकर इंसानों तक पर कई चरणों में परीक्षण किया जाता है। जब इन परीक्षणों में वैक्सीन सुरक्षित और प्रभावी साबित होती है, तभी इसे इंसानों पर प्रयोग के लिए मंजूरी दी जाती है।
तीन चरणों में किया जाता है इंसानों पर ट्रायल
इंसानों पर किसी भी वैक्सीन का ट्रायल तीन चरणों में किया जाता है। पहले चरण में बेहद कम लोगों को वैक्सीन दी जाती है और ये देखा जाता है कि ये कितनी सुरक्षित है। दूसरे चरण में ज्यादा लोगों को शामिल कर ये देखा जाता है कि वैक्सीन वायरस के खिलाफ कितनी कारगर है। तीसरे चरण में हजारों लोगों पर ट्रायल कर देखा जाता है कि वैक्सीन कितनी प्रभावी है और कितने समय तक सुरक्षा प्रदान कर सकती है।
इसलिए लगता है ट्रायल पूरा होने में समय
इन सभी ट्रायलों को पूरा करने में सालों लगते हैं और अभी तक सबसे कम समय में कंठमाला की वैक्सीन विकसित की गई है जिसे बनाने में चार साल लगे थे। वैक्सीनों के ट्रायल पूरा होने में इतना समय इसलिए लगता है क्योंकि इंसानी शरीर को प्रतिक्रिया देने में समय लगता है और कई बार गंभीर साइड इफेक्ट दिखने में कई साल लग सकते हैं। इसी कारण ट्रायल में शामिल लोगों पर सालों नजर रखी जाती है।
जल्दबाजी पड़ सकती है भारी
अगर जल्दबाजी में बिना ट्रायल पूरे किए वैक्सीन लॉन्च कर दी जाती है और करोड़ों लोगों को ये लगा दी जाती है तो बाद में जाकर ये वैक्सीन इन लोगों के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है।
जब वैक्सीन से 40,000 लोगों को हो गया था पोलियो
वैक्सीनों के हानिकारक साबित होने के मामले पहले भी सामने आ चुके हैं। इनमें सबसे चर्चित मामला पोलिया वैक्सीन से जुड़ा है जिसे 'कटर प्रकरण' के नाम से जाना जाता है। 1955 के इस प्रकरण में कटर लैबोरेटरीज ने मृत वायरस की बजाय जिंदा वायरस से वैक्सीन बना दी थी। इसे 1.2 लाख बच्चों को लगा दिया गया जिनमें से 40,000 को पोलियो हो गया, 51 को लकुआ मार गया और पांच की मौत हो गई थी।