ST-SC को पदोन्नति में आरक्षण देने के मानकों को बदलने से सुप्रीम कोर्ट का इनकार
सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति (ST) और अनुसूचित जनजाति (SC) के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने मामले में शुक्रवार को अहम फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि वह ST-SC को पदोन्नति में आरक्षण देने के संबंध में पूर्व में निर्धारित किए गए मानकों से छेड़छाड़ नहीं कर सकता है। राज्यों को तय करना है इसे कैसे लागू किया जाएगा। हालांकि, राज्य सरकारों को आरक्षण तय करने से पहले इसका डाटा एकत्र करना चाहिए।
राज्य प्रतिनिधित्व के संबंध में मात्रात्मक डाटा जुटाने के लिए है बाध्य- सुप्रीम कोर्ट
जस्टिस नागेश्वर राव, संजीव खन्ना और बी आर गवई की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा, "हम पदोन्नति में ST-SC के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को निर्धारित करने के लिए कोई मानदंड निर्धारित नहीं कर सकते। राज्य प्रतिनिधित्व के संबंध में मात्रात्मक डाटा जुटाने के लिए बाध्य हैं।" पीठ ने कहा, "एक निश्चित अवधि के बाद प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के आकलन की समीक्षा जरूरी है और यह समीक्षा अवधि केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जानी चाहिए।"
"संविधान पीठ के फैसले में नहीं कर सकते हैं कोई बदलाव"
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "वह एम नागराज केस में संविधान पीठ के फैसले में कोई बदलाव नहीं कर सकता हैं। ऐसे में सरकारी नौकरियों में ST-SC को आरक्षण देने के लिए राज्य सरकारें बाध्य है, लेकिन इसके लिए मात्रतात्मक डाटा एकत्र करना जरूरी है।" कोर्ट ने आगे कहा, "सरकारें समय-समय पर यह समीक्षा करने के लिए भी बाध्य है कि SC-ST को पदोन्नति के लिए लागू आरक्षण में सही प्रतिनिधित्व मिला है या नहीं।"
क्या था एम नागराज केस?
बता दें कि साल 2006 में SC-ST को पदोन्नति में आरक्षण को लेकर एम नागराज से संबंधित केस में सुप्रीम कोर्ट कहा था कि पिछड़ेपन का डाटा एकत्र किया जाएगा और आरक्षण के मामले में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू होगा। सरकार अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और प्रशासनिक दक्षता को देखेगी। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि इस मामले में राज्य सरकारों को निर्णय करना है, लेकिन समय-समय पर इसकी समीक्षा भी जरूरी होगी।
केंद्र सरकार को निर्धारित करनी होगी समीक्षा की अवधि- सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यों को आरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से समीक्षा करनी चाहिए। इसके लिए केंद्र सरकार समीक्षा की अवधि निर्धारित करेगी। सरकारी आरक्षण नीतियों की वैधता के मुख्य मुद्दे पर 24 फरवरी से सुनवाई होगी।
दिल्ली हाई कोर्ट ने निरस्त की थी केंद्र सरकार की अधिसूचना
बता दें कि साल 2017 में दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार की अधिसूचना को निरस्त कर दिया था, जिसमें आरक्षित वर्ग के केंद्रीय कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण दिया गया था। अदालत ने कहा था कि 1997 के फैसले के तहत यह आरक्षण तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक यह न देखा जाए कि उच्च पदों पर पिछड़े वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। यह प्रतिनिधित्व तय करने के लिए संख्यात्मक आंकड़ा होना जरूरी है।
इस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था मामला
दिल्ली हाई कोर्ट के अधिसूचना को निरस्त करने के बाद पिछड़ी जातियों के कर्मचारियों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए इसे अपना मौलिक अधिकार बताया था। कर्मचारियों ने पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को यथावत रखने की मांग की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों पर छोड़ा था आरक्षण देने का निर्णय
मामले में लंबी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट साल 2020 में कहा था कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और इसे लागू करना या न करना राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर करता है। इसके बाद राज्यों ने पदोन्नति में आरक्षण को लेकर अलग-अलग निर्णय किए थे। उच्च जाति के सैकड़ों लोग आरक्षण के खिलाफ हाई कोर्ट पहुंच गए थे। इसको लेकर विरोधाभास हो गया था। बाद में कई राज्य सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से मांगा था आरक्षण के लिए ठोस आधार
7 अक्टूबर को हुई सुनवाई में केंद्र ने कहा था कि 75 साल बाद भी ST-SC के लोगों को योग्यता के उस स्तर पर नहीं लाया जा सका, जिस पर उच्च जातियां हैं। ST-SC के लोगों के लिए ग्रुप A की नौकरियों में उच्च पद प्राप्त करना अधिक कठिन है। सरकार ने कहा था कि अब समय आ गया है जब शीर्ष अदालत को रिक्त पदों को भरने के मामले में ST-SC और OBC के लिए कुछ ठोस आधार दे।
सुप्रीम कोर्ट ने 26 अक्टूबर को सुरक्षित रख लिया था फैसला
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव की अगुवाई वाली पीठ ने इस मामले में तमाम पक्षकारों की दलीलों को सुना था। इसके अलावा राज्य सरकारों ने भी इसमें अपना-अपना पक्ष रखा था। उस दौरान कोर्ट ने भी माना था कि ग्रुप A की नौकरियों में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व कम है और यह उचित नहीं है। इसके बाद केंद्र सरकार की दलीलें सुनते हुए कोर्ट ने 26 अक्टूबर, 2021 को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।