पंचतत्व में विलीन शीला दीक्षित, जानें प्रेम जीवन से लेकर राजनीतिक सफर तक की बातें
क्या है खबर?
3 बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं दिवंगत नेता शीला दीक्षित का आज राजकीय सम्मान के साथ निगम बोध घाट अंतिम संस्कार हुआ।
इससे पहले उनके पार्थिव शरीर को दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित उनके आवास और कांग्रेस मुख्यालय पर रखा गया, जहां लोगों ने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि दी।
81 वर्षीय शीला का कल दोपहर 3:55 बजे दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था।
आइए दिल्ली की तस्वीर बदलने वाली इस कद्दावर नेता के जीवन पर एक नजर डालते हैं।
डाटा
मनमोहन, सोनिया और आडवाणी समेत कई शीर्ष नेताओं ने दी श्रद्धांजलि
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस नेता सोनिया गांधी समेत कई शीर्ष कांग्रेस नेताओं ने कांग्रेस कार्यालय पहुंचकर शीला को श्रद्धांजलि दी। वहीं, भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज ने उनके आवास पर पहुंचकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। इस दौरान हजारों लोग जमा हुए।
शुरूआती जीवन
पंजाब में जन्मीं, दिल्ली से हुई पढ़ाई
शीला दीक्षित का जन्म 3 मार्च, 1938 के पंजाब के कपूरथला में हुआ।
उन्होंने दिल्ली से अपनी पढ़ाई पूरी और दिल्ली यूनिवर्सिटी के मिरांडा हाउस कॉलेज से मास्टर्स की।
11 जुलाई, 1962 को उनकी शादी पूर्व केंद्रीय मंत्री और स्वतंत्रता सेनानी उमा शंकर दीक्षित के IAS बेटे विनोद कुमार दीक्षित से हुई थी।
विनोद और शीला एक-दूसरे को पहले से ही जानते थे और दोनों की पसंद से ही ये शादी हुई थी।
प्रेम जीवन
विनोद ने DTC बस में किया था शीला को प्रपोज
अपनी किताब 'सिटीजन दिल्ली: माय टाइम्स, माय लाइफ' में शीला ने उनके और विनोद के प्रेम जीवन के बारे में कई बातें बताई हैं।
दोनों की मुलाकात प्राचीन भारतीय इतिहास का अध्ययन करने के दौरान हुई थी।
दोस्तों के प्रेम विवाद को सुलझाने के लिए इन दोनों ने मध्यस्थता की थी और इसी बीच दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठे।
शीला ने बताया है कि विनोद ने DTC बस में सफर के दौरान उन्हें शादी के लिए प्रपोज किया था।
जानकारी
इंदिरा ने सबसे पहले काबिलियत को पहचाना
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वो पहली नेता थीं जिन्होंने शीला दीक्षित की प्रशासनिक क्षमता को पहचाना। उन्हें महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग के भारतीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनाया गया। इसके बाद वह किसी न किसी तरह से प्रशासनिक कार्यों से जुड़ी रहीं।
राजनीतिक सफर
यूपी के कन्नौज से राजनीतिक सफर की शुरूआत
शीला की राजनीति में एंट्री 1984 में हुई जब वह कन्नौज से लोकसभा सांसद चुनी गईं।
राजीव गांधी सरकार में उन्हें संसदीय कार्य राज्यमंत्री भी बनाया गया।
इसके बाद 1998 में सोनिया गांधी उन्हें उत्तर प्रदेश से दिल्ली की राजनीति में ले आईं।
दिल्ली में पहले से ही कांग्रेस के कई कद्दावर नेताओं की मौजूदगी के बीच कहा गया कि दिल्ली में उनका राजनीतिक सफर छोटा ही रहने वाला है, लेकिन शीला ने सबको गलत साबित कर दिया।
दिल्ली की राजनीति में एंट्री
1998 में पहली बार बनीं दिल्ली की मुख्यमंत्री
1998 में भारतीय जनता पार्टी को हराने में शीला ने अहम भूमिका निभाई और वह खुद गोल मार्केट क्षेत्र से चुनाव जीतने में कामयाब रहीं।
चुनाव के दौरान उन्होंने कांग्रेस के संगठन को सक्रिय करने में अहम भूमिका निभाई।
कांग्रेस सरकार बनने के बाद उन्हें दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया, जिसके बाद 15 साल तक उनका एकछत्र राज चला।
इस दौरान शीला ने अपनी राजनीतिक सूझबूझ से सियासी विरोधियों को जीतने या किनारे करने में सफलता हासिल की।
लक्ष्य
दिल्ली का विकास था सबसे अहम
शीला के 15 साल के राज में दिल्ली के विकास के नए आयाम गढ़े।
दिल्लीवासियों की नब्ज यानि ट्रैफिक की समस्या को पकड़ने वाली शीला पहली नेता थीं और उन्होंने फ्लाईओवर्स का जाल बिछाना शुरू कर दिया।
उन्होंने दिल्ली मेट्रो के काम को भी तेजी से आगे बढ़ाया और केंद्र में भाजपा सरकार होने का इस पर कोई असर नहीं पड़ने दिया।
शीला ब्यूरोक्रेट्स को भी खुलकर काम करने देती थीं और इसका असर विकास पर देखने को मिला।
हार
AAP की एंट्री से टूटा राजनीतिक वर्चस्व
2011 में अन्ना आंदोलन का सीधा असर शीला की दिल्ली सरकार पर पड़ा और 2013 विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) ने उनके 15 साल के राज को खत्म कर दिया।
शीला को खुद अरविंद केजरीवाल के खिलाफ नई दिल्ली सीट से हार का सामना करना पड़ा।
इस समय के बारे में ये भी कहा जाता है कि शीला को केंद्र की कांग्रेस सरकार में हो रहे लगातार घोटालों और उनके खिलाफ जनता की नाराजगी का फल भोगना पड़ा।
लोकसभा चुनाव
हार के साथ हुआ राजनीतिक सफर का अंत
इसके बाद शीला कुछ समय तक केरल की राज्यपाल रहीं।
2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के समय कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित किया था, हालांकि समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बाद उनके नाम को वापस ले लिया गया।
2019 लोकसभा चुनाव में उन्हें बतौर कार्यकारी अध्यक्ष दिल्ली कांग्रेस की कमान दी गई।
वह खुद भी उत्तर-पूर्व दिल्ली सीट से चुनाव लड़ी, लेकिन उन्हें और पार्टी को हार का सामना करना पड़ा।