फिर मर रहे हैं बच्चे और सो रही हैं सरकारें, बस शहर और राज्य बदले

राजस्थान और गुजरात में बच्चों की मौत की जो खबरें सुनने को मिल रही हैं, ऐसी खबरें लगभग हर साल सुनने को मिलती हैं। बस शहर और राज्य बदल जाते हैं और बाकी कहानी वही रहती है। सरकारें सोती रहती हैं और बच्चे काल के गाल में समाते जाते हैं। आइए आपको ऐसी ही पांच बड़ी घटनाओं के बारे में बताते हैं जिनसे अगर सीख ली जाती तो राजस्थान और गुजरात में बच्चों की जान बचाई जा सकती थी।
राजस्थान के कोटा के जेके लोन अस्पताल में दिसंबर की शुरूआत से अब तक 110 बच्चों की मौत हो चुकी है। वहीं गुजरात के दो अस्पतालों में पिछले एक महीने में 200 से अधिक बच्चों के मरने की खबर सामने आई है।
मध्य प्रदेश के इंदौर के एक अस्पताल में 2016 में जनवरी से मई के बीच 78 बच्चे मौत के मुंह में समा गए थे। ICU में भर्ती इन बच्चों की मौत की वजह वेंटीलेटर की कमी बताई गई थी। वहीं डॉक्टरों ने गंभीर इंफेक्शन की वजह से बच्चों की मौत की बात कही थी। जब मामले पर हंगामा हुआ तो अपनी गलती मानने की बजाय शिशु रोग विभाग ने कहा कि हर साल इतने बच्चों की मौत होती रहती है।
दूसरी बड़ी घटना राजस्थान के बांसवाड़ा की है। यहां के सरकारी महात्मा गांधी अस्पताल में 2017 में जुलाई और अगस्त महीने में 81 बच्चों की मौत हो गई थी। मामला राष्ट्रीय सुर्खियों छाने के बाद राजस्थान हाई कोर्ट ने इसका संज्ञान लिया और PMO सहित तीन डॉक्टरों को निलंबित कर दिया। इसके अलावा दोषी पाए गए अन्य मेडिकल कर्मचारियों को भी निलंबित किया गया था। अब सभी आरोपी बहाल हो चुके हैं।
अगस्त 2017 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से पांच दिन के अंदर 64 नवजातों की मौत के मामले को कौन भूल सकता है। इस मामले ने राजनीति में भूचाल ला कर रख दिया था। ये राज्य की नई नवेली योगी आदित्यनाथ सरकार के लिए पहली बड़ी चुनौती थी। सरकार ने मामले में अपनी लापरवाही स्वीकार करने की बजाय कहा कि अगस्त में तो बच्चों की मौत होती रहती है।
यही नहीं जिन डॉ काफिल अहमद खान ने तत्परता दिखाते हुए और बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया, सरकार ने उन्हें ही मुख्य आरोपी बना दिया। लेकिन जांच में उन्हें क्लीन चिट मिली और वो जेल से बाहर आए।
उत्तर प्रदेश सरकार ने गोरखपुर की घटना से कोई सीख नहीं ली और इसका नतीजा अगले ही साल देखने को मिला। 2018 में राज्य के बहराइच जिले में डेढ़ महीने के अंदर 71 बच्चों की मौत हो गई। जिला अस्पताल के अधीक्षक डीके सिंह ने कहा कि सीमित संसाधनों और बेडों की कमी की वजह से अस्पताल प्रशासन को दिक्कतों का सामना करना पड़ा। मामले में एक भी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई।
पांचवीं और आखिरी घटना बिहार की है जहां 2019 में एक्युट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (दिमागी बुखार) की वजह से लगभग 150 बच्चों की मौत हो गई। बीमारी का सबसे ज्यादा प्रभाव मुजफ्फरपुर में रहा जहां 111 बच्चों की मौत हुई। अगर राज्य के स्वास्थ्य विभाग ने शुरूआत में बीमारी को नजरअंदाज नहीं किया होता तो इनमें से कई बच्चों को बचाया जा सकता था। डॉक्टरों में अभी तक इस बीमारी के कारण और इलाज में आम सहमति नहीं बनी है।