अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता क्यों हुआ और इसके क्या मायने हैं?
शनिवार को कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए। समझौते के तहत अमेरिका और उसके सहयोगी अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाएंगे, वहीं तालिबान आतंकी सगठनों को अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देगा। इस समझौते के क्या मायने हैं, अमेरिका ने ये समझौता क्यों किया है और क्यों इसे अफगानिस्तान में 18 साल के युद्ध को खत्म करने की तरफ एक बड़ा कदम माना जा रहा है, आइए आपको समझाते हैं।
सबसे पहले जानें क्या है समझौते में?
अमेरिका-तालिबान के शांति समझौते के तहत अमेरिका और उसके NATO सहयोगी देश 14 महीनों के अंदर चरणों में अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाएंगे। अभी अफगानिस्तान में अमेरिका के 14,000 और 39 NATO देशों के 17,000 सैनिक तैनात हैं। शुरूआत के तौर पर अमेरिका अपने सैनिकों की संख्या को घटाकर 8,600 करेगा और अगले 135 दिन के अंदर बाकी वादों पर काम करेगा। तालिबान के अपने वादे पूरे करने पर बाकी सैनिकों को वापस बुला लिया जाएगा।
तालिबान को पूरे करने होंगे ये वादे
इसके बदले में तालिबान को गारंटी देनी होगी कि वो अलकायदा समेत किसी भी आतंकी संगठन को अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमला करने के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देगा। इसके अलावा उसे 10 मार्च तक अफगानिस्तान सरकार से बातचीत शुरू करनी पड़ेगी और राष्ट्रीय स्तर पर सीजफायर करना होगा। बता दें कि तालिबान अफगानिस्तान सरकार से बातचीत नहीं करता है और इसी कारण सरकार को शांति समझौते की बातचीत से भी अलग रखा गया था।
अमेरिका के लिए क्यों जरूरी था समझौता?
अमेरिका ने 9 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद अफगानिस्तान पर हमला किया था। तब अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण था और उस पर ओसामा बिन लादेन और अलकायदा के अन्य आतंकियों का सहयोग करने का आरोप था। तभी से अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में तैनात है और ये उसका सबसे लंबे समय तक चलने वाला युद्ध बन गया है। इस दौरान उसे सैन्य और आर्थिक दोनों रूप से बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है।
इसलिए जरूरी हो गया था तालिबान से बातचीत करना
अमेरिका लंबे समय से अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने का इच्छुक रहा है लेकिन सेना वापस आने के बाद तालिबान के फिर से अफगानिस्तान पर कब्जा करने और इससे इलाके में अमेरिकी हितों पर असर पड़ने की आशंका के कारण वो ऐसा नहीं कर सका। उसकी मदद से स्थापित अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार भी तालिबान के असर को बहुत अधिक कम करने में नाकाम रही। इन्हीं कारणों से अमेरिका को तालिबान से बातचीत करने पर मजबूर होना पड़ा।
एक बार ट्रंप ने रद्द कर दी थी बातचीत
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन की कोशिशों के बाद 2018 में मौजूदा बातचीत शुरु हुई थी और अब शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। इस बीच कई बार बातचीत खटाई में जाती दिखी और सितंबर, 2019 में काबुल में हुए एक हमले में एक अमेरिकी सैनिक की मौत होने पर ट्रंप ने बातचीत रद्द करने तक का ऐलान तक कर दिया। हालांकि साल के अंत में बातचीत को फिर से शुरू किया गया।
समझौते का अफगानिस्तान की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?
इस शांति समझौते का अफगानिस्तान की राजनीति पर बड़ा असर पड़ सकता है। तालिबान अब तक अफगानिस्तान की सरकार को "पश्चिमी देशों की कठपुतली सरकार" बताकर उससे बातचीत करने से इनकार करता रहा है। लेकिन अब समझौते के बाद उसे सरकार से बातचीत करनी होगी और अफगानिस्तान का भविष्य बहुत हद तक इस बातचीत पर निर्भर करेगा। इस बातचीत में सत्ता के बंटवारे और सीजफायर जैसे अहम मुद्दों पर भी बातचीत की जानी है।
राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप को फायदा पहुंचा सकता है समझौता
वहीं ट्रंप को भी इस साल नवंबर में होने जा रहे अमेरिका राष्ट्रपति चुनाव में इस शांति समझौते से फायदा हो सकता है, विशेषकर ये देखते हुए कि अमेरिका का एक बड़ा तबका बाहरी देशों से अपनी सेनाएं वापस बुलाने का पक्षधर रहा है।
भारत पर क्या असर डालेगा समझौता?
यूं तो अफगानिस्तान के भौगोलिक महत्व को देखते हुए ये शांति समझौता कई देशों के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत के लिए इसके खास मायने हैं। अफगानिस्तान की सरकार से भारत के अच्छे रिश्ते रहे हैं और इलाके की स्थिरता में वो एक बड़ा योगदान देता रहा है। इसके उलट पाकिस्तान और तालिबान के संबंध अच्छे रहे हैं। ऐसे में अफगानिस्तान की राजनीति में तालिबान का दबदबा बढ़ने पर भारतीय हितों को नुकसान हो सकता है।
अफगानिस्तान से हटाकर कश्मीर में आतंकी भेज सकता है पाकिस्तान
इसके अलावा तालिबान का दबदबा बढ़ने पर पाकिस्तान अफगानिस्तान में "तैनात" अपने आतंकियों को कश्मीर की तरफ भेजने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा। भारत के जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद बने तनाव को देखते हुए इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता।