
#NewsByteExplainer: डी-डॉलरीकरण क्या है, जिससे वैश्विक व्यापार में अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती मिल रही है?
क्या है खबर?
वैश्विक व्यापार में अमेरिकी डॉलर के दशकों पुराने प्रभुत्व को एक बड़ी चुनौती मिली है क्योंकि कई विकासशील देश डी-डॉलरीकरण की मांग कर रहे हैं।
चीन ने हाल ही में ऐलान किया है कि वो अब डॉलर की जगह चीनी करेंसी युआन को अंतरराष्ट्रीय कारोबार की मुद्रा बनाना चाहता है, जिसे लेकर पिछले महीने चीन और ब्राजील ने एक दूसरे की मुद्राओं में व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
आइए जानते हैं कि डी-डॉलरीकरण का पूरा मामला क्या है।
आशय
क्या है डी-डॉलरीकरण?
सरल भाषा में कहे तो 'डी-डॉलरीकरण' मतलब अतंरराष्ट्रीय बाजार में अमेरिकी डॉलर के प्रभाव को कम करना है।
वैश्विक व्यापार में कई देश दशकों से अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करने की मांग कर रहे हैं। चीन और रूस भी उन देशों में शामिल हैं, जिन्होंने डी-डॉलरीकरण का समर्थन किया है।
इस साल जनवरी में ईरान और रूस ने वैश्विक व्यापार के लिए संयुक्त रूप से सोने द्वारा समर्थित एक नई क्रिप्टोकरेंसी जारी करने का भी ऐलान किया था।
व्यापार
अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर कैसे बना आरक्षित मुद्रा?
अमेरिकी डॉलर ने 1920 के दशक में अंतरराष्ट्रीय आरक्षित मुद्रा के रूप में सोने की मुद्रा की जगह लेनी शुरू की थी, क्योंकि अमेरिका प्रथम विश्व युद्ध में सुरक्षित था।
इसके बाद ब्रेटन वुड्स सिस्टम ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद डॉलर की स्थिति को और मजबूत किया।
1944 के समझौते में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना के दौरान 44 देशों ने अमेरिकी डॉलर को वैश्विक स्तर पर प्राथमिक आरक्षित मुद्रा बनाने की अनुमति दी थी।
मुद्रा
क्या होती है आरक्षित मुद्रा?
भारतीय वित्त मंत्रालय के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय लेनदेन को सुविधाजनक बनाने, विनिमय दरों को स्थिर करने और वित्तीय विश्वास बढ़ाने के लिए विश्व के केंद्रीय बैंकों में रखी गई विदेशी मुद्रा को आरक्षित मुद्रा कहते हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार, अन्य देशों की करेंसी जैसे यूरो, येन, पाउंड, कैनेडियन डॉलर, स्विस फ्रैंक और ऑस्ट्रेलियाई डॉलर के मुकाबले अमेरिकी डॉलर विश्व की प्रमुख आरक्षित मुद्रा है।
विश्वभर के केंद्रीय बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडार में 60 प्रतिशत अमेरिकी डॉलर रखते हैं।
क्या है कारण
क्यों हो रही डी-डॉलरीकरण की मांग?
रिचर्स रिपोर्ट के अनुसार, यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद अमेरिका ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं।
इससे अमेरिका पर ये आरोप लगे कि वह डॉलर का इस्तेमाल हथियार के तौर पर कर रहा है क्योंकि IMF में डॉलर का शेयर 60 फीसदी है।
इसके अलावा 70 फीसदी व्यापार अमेरिकी डॉलर में होता है। इसी वित्तीय ताकत की बदौलत अमेरिका दूसरे देशों पर कड़े प्रतिबंध लगाता आ रहा है, जिसने अन्य विकासशील देशों को सोचने पर मजबूर किया।
मांग
डी-डॉलरीकरण को लेकर क्या उठाए जा रहे कदम?
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन हाल में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के साथ होने वाले ट्रेड के लिए चीनी करेंसी युआन के इस्तेमाल समर्थन किया है।
इसी बीच सऊदी अरब भी डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं में व्यापार करने का इच्छुक है, जबकि फ्रांस और अर्जेंटिना ने भी युआन में व्यापार करने की हामी भर चुके हैं।
हाल में भारत और मलेशिया ने द्विपक्षीय व्यापार में भारतीय मुद्रा का उपयोग करना शुरू किया है।
ब्रिक्स
G-20 बैठक में डॉलर के विकल्प पर हुई थी चर्चा?
मार्च में नई दिल्ली में G-20 शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था, जो ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के बीच बढ़ते सहयोग पर केंद्रित था। इसमें डॉलर के विकल्प के रूप में एक नई मुद्रा लॉन्च करने की संभावना पर चर्चा हुई।
रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल अगस्त में दक्षिण अफ्रीका में होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में एक नई वित्तीय व्यवस्था की घोषणा की जा सकती है।
भारत
डी-डॉलरीकरण में क्या है भारत की भूमिका?
भारत भी अमेरिकी डॉलर को वैश्विक मुद्रा के रूप में रुपये से बदलने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है।
देश लगातार डॉलर की कमी से जूझ रहे मित्र देशों को द्विपक्षीय व्यापार भारतीय रुपये में करने की पेशकश कर रहा है।
भारत का लक्ष्य है कि अपने उन पड़ोसी देशों को आर्थिक संकट से बचाया जा सके, जिनका वो महत्वपूर्ण रूप से व्यापारिक साझीदार है।
इस दिशा में वह अन्य देशों के साथ मिलकर कार्य कर रहा है।