राजस्थान: कांग्रेस में क्यों चल रही है कलह और इसकी शुरुआत कहां से हुई थी?
शनिवार को राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आरोप लगाया कि भाजपा उनकी सरकार गिराने के प्रयास कर रही है। पुलिस ने भी भाजपा के दो नेताओं को कांग्रेस और निर्दलीय विधायकों को पैसे का लालच देकर खरीदने की कोशिश के आरोपों में गिरफ्तार किया। इसके बाद रविवार को गहलोत खेमे ने दावा किया कि सचिन पायलट भाजपा के संपर्क में है। वहीं पायलट अपने खेमे के विधायकों के साथ दिल्ली के किसी होटल में रुके रहे।
शीर्ष नेतृत्व तक पहुंची तनातनी की आहट
गहलोत और पायलट के बीच चल रही इस तनातनी ने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के कान खड़े कर दिए। कई नेता यह भी याद करने के लगे कि कैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया के बागी होने के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरी थी।
कांग्रेस के पास कितने विधायकों का समर्थन?
इस सियासी उठापटक के बीच अगर पायलट सिंधिया की राह पकड़ते हैं तो विधानसभा के समीकरण महत्वपूर्ण हो जाएंगे। दरअसल, मध्य प्रदेश की तुलना में राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा के विधायकों की संख्या में काफी अंतर है। पिछले ही महीने हुए राज्यसभा चुनावों में कांग्रेस के दो उम्मीदवारों को 200 में से 123 वोट मिले थे। इनको 125 वोट मिल सकते थे, लेकिन एक विधायक और एक मंत्री खराब सेहत के कारण वोट डालने नहीं आ सके।
ये है विधानसभा के समीकरण
राजस्थान में कांग्रेस के 107 विधायक हैं। गहलोत सरकार को 13 निर्दलीय, दो भारतीय ट्राइबल पार्टी, और एक रालोद विधायक का समर्थन है। कई अहम मौकों पर सरकार को CPM के एक विधायक का भी समर्थन मिला है। इस तरह सरकार के समर्थन में कुल 125 विधायक है। दूसरी तरफ राज्यसभा चुनावों में भाजपा उम्मीदवार को 74 वोट मिले। यहां 72 विधायकों वाली भाजपा को राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के तीन विधायकों का समर्थन है। एक वोट अमान्य घोषित हुआ था।
गहलोत के समर्थन में हैं अधिकतर विधायक
कांग्रेस विधायकों के अलावा निर्दलीय विधायक भी गहलोत के करीब माने जाते हैं। इनमें से अधिकतर टिकट न मिलने के कारण कांग्रेस से बागी हुए थे। 2014 से सचिन पायलट के प्रदेश कांग्रेस समिति के प्रमुख होने के बावजूद 2018 विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण में गहलोत का पलड़ा भारी रहा था। कांग्रेस के 75 फीसदी विधायक गहलोत खेमे के बताए जाते हैं। वहीं पायलट खेमे का कहना है उनके पास कम से कम 50 प्रतिशत विधायकों का समर्थन है।
मध्य प्रदेश में अलग थे हालात
अधिकतर विधायकों का मुख्यमंत्री के समर्थन में होना राजस्थान की स्थिति को मध्य प्रदेश से अलग बनाता है। इसके अलावा यहां तनातनी की मुख्य वजह मुख्यमंत्री का पद है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर पायलट कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाते हैं तो क्या उन्हें मुख्यमंत्री पद से कम कुछ मंजूर होगा? मध्य प्रदेश में सिंधिया मुख्यमंत्री पद नहीं मांग रहे थे। इसलिए भाजपा के लिए उन्हें अपने पाले में लाना आसान था।
क्या पायलट अपने समर्थन वाले विधायकों के साथ पार्टी से जा नहीं सकते?
दल-बदल कानून से बचने के लिए पायलट को अपने साथ पार्टी के कम से कम दो तिहाई यानी लगभग 72 विधायकों को तोड़ना होगा, जो बहुत बड़ी संख्या है। अगर पायलट मध्य प्रदेश की राह पर चले तो उनके समर्थित विधायकों को पहले इस्तीफा देना होगा। बाद में भाजपा की टिकट पर उपचुनाव में जीत हासिल कर विधानसभा में आना होगा। चूंकि दोनों पार्टियों के संख्याबल में भारी अंतर है तो कम से 50 विधायकों को इस्तीफा देना होगा।
क्या है गहलोत और पायलट के बीच तनातनी की वजह?
सचिन पायलट को 2014 में राजस्थान कांग्रेस का प्रमुख बनाया गया था। माना जा रहा था कि 2018 के विधानसभा चुनावों में अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो पायलट को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन बाजी गहलोत के हाथ लगी। पायलट को पांच विभागों के साथ उप मुख्यमंत्री का पद सौंपा गया और वो कांग्रेस की प्रदेश ईकाई के प्रमुख बने रहे। इसके बाद से दोनों नेता कई मौकों पर बिना नाम लिए एक-दूसरे पर निशाना साधते रहे हैं।
तनातनी को दूर करने की कोशिशें क्यों नहीं हुईं?
बीते कुछ सालों में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व काफी कमजोर हुआ है। वहीं 2019 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद युवा नेता पार्टी में खुद के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं। इसके अलावा राजस्थान के प्रभारी अविनाश पांडे इतने कद्दावर नेता नहीं हैं कि वो गहलोत और पायलट को आमने-सामने बैठाकर उनके मतभेद सुलझा सकें। साथ ही कांग्रेस के लिए जातीय समीकरणों को नजरअंदाज करना आसान नहीं है।
ये है जाति का हिसाब-किताब
पायलट गुर्जर समुदाय से आते हैं। यह बात उनके खिलाफ भी गई कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने से मीणा समुदाय में अच्छा संदेश नहीं जाएगा। दूसरी तरफ माली जाति से आने वाले गहलोत को किसी के लिए खतरे के तौर पर नहीं देखा जा रहा।