शहरी लोगों के मुकाबले ग्रामीणों का खर्च बढ़ा, सिक्किम के लोग कर रहे सबसे ज्यादा खर्चा
हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला है कि ग्रामीण लोगों के खर्चों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। बीते 10 सालों में ग्रामीण और शहरी परिवारों का खर्च लगभग बराबर हो गया है। भारतीय घरों में औसत मासिक प्रति व्यक्ति खर्च (MPCE) 2011-12 के आधार पर शहरी परिवारों में 33.5 प्रतिशत बढ़कर 3,510 रुपये और ग्रामीण परिवारों में 40.42 प्रतिशत बढ़कर 2,008 रुपये पर तक पहुंच गया है।
साल दर साल कैसे बढ़ा खर्च?
वर्तमान मूल्यों के हिसाब से MPCE ग्रामीण भारत में 3,773 और शहरी क्षेत्रों में 6,459 था। यानी दोनों के बीच का अंतर 71 प्रतिशत था। वहीं, 2011-12 में ग्रामीण और शहरी खर्चों में अंतर 83.9 प्रतिशत, 2009-10 में 88.2 प्रतिशत और 2004-05 में 90.8 प्रतिशत था। ये आंकड़े अगस्त 2022 से जुलाई 2023 के बीच किए गए अखिल भारतीय घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण में सामने आए हैं, जिसे सरकार ने 11 साल बाद जारी किया है।
ग्रामीण क्षेत्रों में 6 गुना से ज्यादा बढ़ा खर्च
बीते 18 सालों में ग्रामीण क्षेत्रों में औसत MPCE 6 गुना से ज्यादा बढ़ा है। साल 2004-05 में ग्रामीण खर्च 579 और शहरी 1,105 था। ताजा आंकड़ों से इनकी तुलना की जाए तो ये ग्रामीण क्षेत्रों में 552 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 484 प्रतिशत की बढ़ोतरी को दिखाता है। 2022-23 में ग्रामीण आबादी के निचली 5 प्रतिशत आबादी का औसत MPCE 1,373 था, जबकि शहरी क्षेत्रों में 2,001 था।
सबसे कम खर्च कर रहे छत्तीसगढ़ के लोग
राज्यों की बात करे तो सिक्किम में शहरी और ग्रामीण दोनों आबादी सबसे ज्यादा खर्च कर रही है। यहां एक ग्रामीण हर महीने 7,731 और शहरी 12,105 रुपये खर्च कर रहा है। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ में एक ग्रामीण हर महीने 2,466 और शहरी 4,483 रुपये खर्च कर रहा है, जो सबसे कम है। खाने पर हर महीने का खर्च ग्रामीण इलाकों में 1,750 और शहरी इलाकों में 2,530 रुपये है।
खाने पर भारतीयों का खर्च हुआ कम
भारतीय अब खाने पर कम खर्च करने लगे हैं। पहली बार ग्रामीण भारत में भोजन पर खर्च कुल खर्च का 50 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 40 प्रतिशत से भी कम हो गया है। 1999-2000 में ग्रामीण भारत के लोग कुल खर्च में से 59.4 प्रतिशत खाने पर खर्च करते थे, जो अब 46.38 प्रतिशत हो गया है, वहीं 1999-2000 में शहरी लोग खाने पर 48.06 प्रतिशत खर्च करते थे, जो अब कम होकर 39.17 प्रतिशत हो गया है।
11 साल बाद जारी हुए आंकड़े
MPCE के आंकड़े हर 5 साल में जारी किए जाते हैं, लेकिन आंकड़ों की गुणवत्ता पर सवाल उठने के चलते 2017-18 में इसे जारी नहीं किया गया था। डाटा का मूल्यांकन करने वाले एक विशेषज्ञ पैनल ने विसंगतियों को नोट कर कार्यप्रणाली में बदलाव की सिफारिश की थी। आखिरी डाटा साल 2011-12 में जारी किया गया था। हालांकि, 2019 में सरकार ने कहा था कि 2017-18 के सर्वे में उपभोक्ता पैटर्न में अहम बदलाव सामने आए हैं।