कोरोना वायरस के ओमिक्रॉन वेरिएंट के खिलाफ किस तरह से मददगार साबित होगी जीनोम सीक्वेंसिंग?
क्या है खबर?
कोरोना वायरस के बेहद खतरनाक माने जा रहे 32 म्यूटेंट वाले ओमिक्रॉन वेरिएंट ने दुनियाभर में खलबली मचा दी है। तमाम देश इससे बचाव के लिए हरसंभव कदम उठा रहे हैं।
हालांकि, अभी भी दुनिया के सामने सबसे बड़ी समस्या इससे संक्रमित लोगों का पता लगाने की है। ऐसे में जीनोम सीक्वेंसिंग के जरिए ही इसका पता लगाया जा रहा है।
यहां जानते हैं कि आखिर जीनोम सीक्वेंसिंग क्या है और यह ओमिक्रॉन के खिलाफ कैसे मददगार साबित होगी।
खतरा
WHO ने ओमिक्रॉन वेरिएंट को बताया 'वेरिएंट ऑफ कंसर्न'
इस वेरिएंट के सामने आने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने ही इसे ओमिक्रॉन नाम देकर 'वेरिएंट ऑफ कंसर्न' बताया था।
विशेषज्ञों के अनुसार, वेरिएंट वायरस के अन्य वेरिएंट्स की तुलना में अधिक संक्रामक और खतरनाक हो सकता है। इसके वैक्सीनों को चकमा देने की आशंका भी लगाई जा रही है।
हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह अधिक संक्रामक है या नहीं और अन्य वेरिएंटों की तुलना में इसकी घातकता का भी कोई अंदाजा नहीं है।
चुनौती
RT-PCR टेस्ट से नहीं चल रहा ओमिक्रॉन वेरिएंट का पता
वर्तमान में दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस वेरिएंट से संक्रमितों का पता लगाने की है।
इसका कारण है कि अधिकतर RT-PCR टेस्ट ओमिक्रॉन और दूसरे वेरिएंट में फर्क करने में सक्षम नहीं हैं। इससे वेरिएंटों का सही पता लगाना मुश्किल है।
वैज्ञानिकों का दावा है कि RT-PCR टेस्ट से केवल संक्रमित होने या नहीं होने का पता चल सकता है। इसमें यह पता नहीं चलता कि वह किस वेरिएंट से संक्रमित हैं। ऐसे में जीनोम सीक्वेंसिंग आवश्यक है।
सवाल
क्या होती है जीनोम सीक्वेंसिंग?
जीन मूल रूप से अनुवांशिकता की एक इकाई है। इससे एक पीढी के उन भौतिक लक्षणों और गुणों का पता चल पाता है जो उसे माता-पिता से मिला है।
SARS-CoV-2 वायरस की अनुवांशिक जानकारी से यह पता चलता है कि वह मानव कोशिकाओं को कैसे संक्रमित करता है।
कुल मिलाकर जीनोम सीक्वेंसिंग से वायरस के अनुवांशिक बदलावों को देखा जाता है। इससे पता चलता है कि अनुवांशिक बदलावों से वायरस के व्यवहार मे क्या बदलाव आ रहा है।
फायदा
जीनोम सीक्वेंसिंग से क्या होता है फायदा?
वैज्ञानिकों के अनुसार, जीनोम सीक्वेंसिंग का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे यह पता लगाया जा सकता है कि क्या वायरस अपने आनुवांशिक बदलावों से खुद को तेजी से फैलाने में सक्षम होता है, एंटबॉडी को नाकाम कर सकता है और जांच से खुद को बचा सकता है।
इसी तरह इससे वैज्ञानिकों को नए वेरियंट में हो रहे बदलाव की जानकारी मिलती है और यह भी पता चलता है कि वायरस के लक्षणों में क्या असर पड़ रहा है।
जानकारी
मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को समझने में भी होती है आसानी
वैज्ञानिकों की मानें तो जीनोम सीक्वेंसिंग से वायरस के बदले स्वरूप के कारण मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है और फिर उसके उपचार के लिए आवश्यक वैक्सीन या दवा इजाद करने में भी मदद मिलती है।
परेशानी
जीनोम सीक्वेंसिंग को लेकर क्या आ रही है परेशानी?
बता दें कि कोरोना महामारी से पहले जीनोम सीक्वेंसिंग बैक्टीरिया के एंटीबायोटिक प्रतिरोध से जुड़े छोटे-छोटे अध्ययनों के लिए की जाती थी, लेकिन कोरोना महामारी के बाद इसका उपयोग तेजी से बढ़ गया है।
हालांकि, WHO का मानना है कि कई देशों में जीनोम सीक्वेंसिंग के लिए अच्छी लैबों की कमी है। ऐसे में उन्हें बेहतर करना बहुत ज़रूरी है।
जीनोम सीक्वेंसिंग के बिना कोरोना वायरस के बदलते व्यवहार और नए वेरिएंटों का पता नहीं लगाया जा सकता है।
हालात
भारत में क्या है जीनोम सीक्वेंसिंग की स्थिति?
इंडियन SARS-CoV-2 जीनोमिक कन्सोर्टियम (INSACOG) के अनुसार, भारत में जुलाई 2021 से 10 लैबों के नेटवर्क के साथ जीनोम सीक्वेंसिंग की शुरुआत की गई थी।
इसके बाद 28 लैबों को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के हिसाब से बनाया गया था।
INSACOG का कहना है कि लैबों के नेटवर्क से तेजी से वायरस पर निगरानी की जा सकती है और समय पर इसकी रोकथाम के लिए आवश्यक कदम उठाए जा सकते हैं।
परेशानी
जीनोम सीक्वेंसिंग में काफी पीछे है भारत
कोरोना के नए वेरिएंटों का पता लगाने के लिए जीनोम सीक्वेंसिंग जरूरी होने के बाद भी भारत इसमें पिछड़ा हुआ है। इसका कारण अधिक लागत और समय है।
एक सैंपल की सीक्वेंसिंग पर 8,000 रुपये तक का खर्च आता है और 24-96 घंटे लगते हैं। इसी तरह लैब की कमी भी बड़ा कारण है।
यही कारण है कि भारत में 8 नवंबर तक 1.15 लाख सैंपलों की ही सीक्वेंसिंग हो सकी है। यह कुल मामलों का महज 0.2 प्रतिशत है।
सबसे ज्यादा
जीनोम सीक्वेंसिंग में पहले पायदान पर है आइसलैंड
जीनोम सीक्वेंसिंग में आईसलैंड पहले पायदान पर है। यहां कुल मामलों के 56.2 प्रतिशत सैंपलों की सीक्वेंसिंग हो चुकी है।
इसी तरह डेनमार्क 46.8 प्रतिशत के साथ दूसरे, नार्वे 13.1 प्रतिशत के साथ तीसरे और ब्रिटेन 12.8 प्रतिशत सैंपलों की सीक्वेंसिंग के साथ चौथे पायदान पर है।
इसके उलट भारत में 0.2 प्रतिशत, अमेरिका में 3.62 प्रतिशत, स्विट्जरलैंड में 9.8 और कनाड़ा में 9.9 प्रतिशत सैंपलों की ही जीनोम सीक्वेंसिंग हो पाई है।