'सैम बहादुर' रिव्यू: विक्की के कंधों पर फिल्म का भार, मेघना गुलजार नहीं कर सकीं कमाल
'उरी' और 'सरदार उधम' जैसी फिल्मों से लोगों का दिल जीतने के बाद विक्की कौशल एक बार फिर 'सैम बहादुर' के साथ पर्दे पर सच्ची कहानी लेकर लौटे हैं। फिल्म भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के जीवन पर आधारित है, जो काफी समय से चर्चा में बनी हुई थी। 1 नवंबर को सिनेमाघरों का रुख करने वाली इस फिल्म के निर्देशन की कमान मेघना गुलजार ने संभाली है। आइए जानते हैं फिल्म उम्मीदों पर खरा उतरी या नहीं।
क्या है फिल्म की कहानी?
'सैम बहादुर' की कहानी बहादुरी का पर्याय माने जाने वाले मानेकशॉ (विक्की) की है, जिसमें उनकी निजी जिंदगी से लेकर भारत के पहले फील्ड मार्शल बनने तक के सफर को दिखाया गया है। करीब 4 दशक तक भारतीय सेना में शामिल रहे मानेकशॉ द्वितीय विश्व युद्ध, 1962 में भारत-चीन युद्ध , 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का हिस्सा रहे थे। वह एक ऐसे आर्मी चीफ थे, जो इंदिरा गांधी के सामने भी कुछ भी कहने से नहीं कतराते थे।
मानेकशॉ ने ठुकराया था पाकिस्तानी सेना में जाने का प्रस्ताव
फिल्म में मानेकशॉ के पाकिस्तान के उस वक्त सैन्य जनरल और बाद में प्रधानमंत्री बने याह्या खान (मोहम्मद जीशान अय्यूब) के साथ रिश्तों को भी दिखाया गया। देश के बंटवारे से पहले जहां दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी तो जंग के मैदान में दोनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे। इतना ही नहीं मानेकशॉ को विभाजन के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना से पाकिस्तानी सेना में शामिल होने का प्रस्ताव भी मिला, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया था।
विक्की का दिखा शानदार अभिनय
'सैम बहादुर' का पूरा भार विक्की के कंधों पर है। अभिनेता ने मानेकशॉ की चाल-ढाल को पूरी तरह से अपना लिया है, जो काबिल-ए-तारीफ है। मानेकशॉ की पत्नी के किरदार में सान्या मल्होत्रा का अभिनय ठीक-ठाक लगता है। पूर्व प्रधानमंत्री के किरदार में फातिमा सना शेख निराश करती हैं। उनकी हाव-भाव में वो तेज नजर नहीं आता, जो गांधी में था। ऐसा लगता है कि फातिमा की जगह कोई बड़ी उम्र की अभिनेत्री यहां होनी चाहिए थी।
कैस रहा सहायक किरदारों का प्रदर्शन?
पाकिस्तान के सैन्य जनरल खान की भूमिका में अय्यूब का प्रदर्शन अच्छा है, लेकिन विभाजन के बाद वह मेकअप के बाद पहचान में ही नहीं आते। सरदार पटेल बने गोविंद नामदेव और पंडित जवाहरलाल नेहरू बने नीरज काबी भी अपनी छाप नहीं छोड़ पाते हैं।
निर्देशन में चूकीं मेघना
2018 में आई फिल्म 'राजी' के बाद मेघना और विक्की की 'सैम बहादुर' से वापसी से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन यह निराश करती है। फिल्म के लिए मेघना ने बहुत ही शानदार विषय चुना है, लेकिन वह मानेकशॉ जैसे महान अफसर की कहानी को ढाई घंटे में पर्दे पर दिखाने में सफल नहीं रहतीं। फिल्म का स्क्रीनप्ले काफी कमजोर है। कभी कहानी इतनी तेजी से आगे बढ़ती है कि बिखरी सी लगती है तो कभी यह धीमी हो जाती है।
यहां खलेगी कमी
अगर आप मानेकशॉ के बारे में नहीं जानते हैं तो इसे समझने में दिक्कत हो सकती है। फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि लेखक ये मानकर बैठे थे कि दर्शक मानेकशॉ के जीवन से परिचित होंगे। एक युद्ध से दूसरे युद्ध के दौरान की कहानी को इस तरीके से दिखाया गया है कि समझ नहीं आता कब क्या हो गया। कुछ सीन बेवजह के लगते हैं, जैसे पूर्व प्रधानमंत्री के मानेकशॉ से बात करनी पर उनकी पत्नी की टिप्पणी करना।
गाने भी नहीं जमा पाए रंग
फिल्म को संगीत शंकर एहसान लॉय ने दिया है। ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि शायद गाने लोगों में देशभक्ति का जोश लाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि, दूसरे भाग में सेना की युद्ध की तैयारी के दौरान आए गाने में सभी रेजिमेंट का जिक्र करना शानदार लगता है। इसके अलावा मेघना का फिल्म को आगे बढ़ाने के लिए असली तस्वीरों और वीडियो का इस्तेमाल करना भी अच्छा है और इससे कहानी को बल मिलता है।
देखें या न देखें?
क्यों देखें? - अगर आप विक्की के प्रशंसक हैं तो उनके शानदार अभिनय के लिए इसे एक मौका दिया जा सकता है। साथ ही अगर इतिहास में दिलचस्पी है और बायोपिक फिल्में देखना पसंद है तो भी यह परिवार के साथ देखी जा सकती है। क्यों नहीं देखें?- फिल्म में विक्की के अलावा कोई सितारा आकर्षित नहीं करता, वहीं इसमें युद्ध की मामूली झलक दिखती है। ऐसे में इसके OTT पर आने का इंतजार कर सकते हैं। न्यूजबाइट्स स्टार- 2.5