क्या है 'एक देश, एक चुनाव' और इस पर पूरी बहस? जानें इसके फायदे और नुकसान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज 'एक देश, एक चुनाव' पर विचार विमर्श करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई है। हालांकि, अब तक कई पार्टी प्रमुख इसमें हिस्सा लेने से इनकार कर चुके हैं। इनमें ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, मायावती, शरद पवार, एमके स्टालिन, चंद्रबाबू नायडू और के चंद्रशेखर राव शामिल हैं। कांग्रेस ने बैठक में हिस्सा लेने पर अभी फैसला नहीं लिया है। 'एक देश, एक चुनाव' का ये पूरा मुद्दा क्या है, आइए इसके बारे में जानते हैं।
'एक देश, एक चुनाव' का मतलब पूरे देश में एक साथ चुनाव
'एक देश, एक चुनाव' का मतलब है कि पूरे देश में लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं। केंद्र शासित भारतीय जनता पार्टी और खुद प्रधानमंत्री मोदी पिछले काफी समय से इस पर चर्चा की मांग कर रहें हैं।
1983 में पहली बार उठा था मुद्दा
1983 में चुनाव आयोग ने 'एक देश, एक चुनाव' के विचार को आगे रखा था। इसके बाद मई 1999 में न्यायाधीश बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसे बेहद जरूरी बताया था। तब से वह 2 बार सर्वदलीय बैठक कर इस पर आम सहमति बनाने की कोशिश कर चुके है। मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी प्रकाश और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी इस विचार का समर्थन कर चुके हैं।
ये हैं 'एक देश, एक चुनाव' के पक्ष में तर्क
'एक देश, एक चुनाव' के पक्ष में बड़ा तर्क ये है कि अलग-अलग चुनाव होने पर सरकारी खजाने पर बड़ा बोझ पड़ता है और इससे विकास कार्यों में भी अवरोध पड़ता है। इसके अलावा अलग-अलग चुनावों के कारण सुरक्षा बलों और सरकारी कर्मचारियों की बड़ी खपत भी इसके पक्ष में एक बड़ा तर्क है। प्रधानमंत्री मोदी ये भी कह चुके हैं कि इससे संघीय ढांचे पर नकारात्मक असर पड़ता है।
ये बातें जाती हैं विरोध में
'एक देश, एक चुनाव' के विरोधियों का तर्क है कि अलग-अलग समय पर होने वाले चुनाव सरकारों पर बेहद जरूरी चेक एंड बैलेंस देते हैं। मतदान लोगों का संवैधानिक हकदार है, जिसका इस्तेमाल वह सरकारों पर नियंत्रण करने के लिए करता है। 'एक देश, एक चुनाव' होने पर 5 साल में उसे ये अधिकार केवल एक बार मिलेगा और सरकारें 5 साल तक अपनी मनमानी करेंगी। इससे भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की ताकत और विश्वसनीयता घटेगी।
क्षेत्रीय पार्टियों की दलील- राष्ट्रीय पार्टियों को मदद करेगी व्यवस्था
क्षेत्रीय पार्टियों की दलील है कि 'एक देश, एक चुनाव' राष्ट्रीय पार्टियों के लिए मददगार सिद्ध होगा और इससे क्षेत्रीय मुद्दों की अहमियत खत्म हो जाएगी। इसके विरोध में एक बड़ा तर्क ये भी दिया जाता है कि 2014 या 2019 लोकसभा चुनाव जैसी लहर की स्थिति में एक साथ चुनाव से उस एक पार्टी को बेहद फायदा होगा। उनका आरोप है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये बड़ा परिवर्तन करके खुद को फायदा पहुंचाना चाहती है।
व्यवस्था में व्यावहारिक पेंच भी
'एक देश, एक चुनाव' की व्यवस्था में एक व्यावहारिक पेंच भी है। मान लीजिए अगर लोकसभा या कोई विधानसभा पूरे 5 साल तक नहीं चल पाई या किसी राज्य में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और सरकार नहीं बनी, तो क्या इस स्थिति में 5 साल तक उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करके रखा जाएगा? अगर ऐसा किया जाता है तो यह भारत की लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था के विपरीत होगा।
जानें कौन सी पार्टी है किस ओर
भाजपा के अलावा बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल, AIADMK, समाजवादी पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति 'एक देश, एक चुनाव' की व्यवस्था के पक्ष में हैं। NDA के ज्यादातर सहयोगी भी मुद्दे पर भाजपा के साथ हैं। वहीं, कांग्रेस, वामदल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी, DMK, तेलुगू देशम पार्टी, AIMIM और जनता दल (सेक्युलर) इसके विरोध में हैं। अन्य पार्टियों का मुद्दे पर रुख अभी तक स्पष्ट नहीं है।
इन देशों से आया है विचार
भारत में एक साथ चुनाव करने का विचार यूरोपीय देश स्वीडन के साथ-साथ बेल्जियम और दक्षिण अफ्रीका से आया है। इन देशों में एक साथ चुनाव होते हैं। हालांकि, यहां आनुपातिक चुनाव प्रक्रिया है और वोटों के हिसाब पार्टियों की सीटें तय की जाती हैं।
संविधान के कई आर्टिकल्स में संसोधन की पड़ेगी जरूरत
अगर 'एक देश, एक चुनाव' पर आम सहमति बनती है, तो इसे लागू करने के लिए केंद्र सरकार को संविधान के कई आर्टिकल में बदलाव करना पड़ेगा और भारत की चुनावी प्रक्रिया में भारी बदलाव आएगा। इनमें लोकसभा और विधानसभा भंग करने से संबंधित आर्टिकल 83, आर्टिकल 85, आर्टिकल 172, आर्टिकल 174 और आर्टिकल 356 शामिल हैं और इनमें संसोधन की जरूरत पड़ेगी। इसके अलावा जनप्रतिनिधि कानून में भी कुछ बदलाव करने की जरूरत पड़ेगी।