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    राजनीति

    अरविंद केजरीवाल: क्या से क्या हो गए देखते-देखते

    अरविंद केजरीवाल: क्या से क्या हो गए देखते-देखते
    लेखन मुकुल तोमर
    Feb 09, 2019, 06:33 pm 1 मिनट में पढ़ें
    अरविंद केजरीवाल: क्या से क्या हो गए देखते-देखते

    अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति का वह चेहरा हैं जो आम आदमी की राजनीति से उम्मीदों और उनके धराशायी होने की कहानी को पेश करता है। 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन से निकले केजरीवाल ने लोगों को बेहतर और जनता हितैषी राजनीति की उम्मीद दी। यह उम्मीद राजनीति के पटल पर उनके ऐतिहासिक और तेज उदय का कारण बनी। लेकिन उन्होंने इन उम्मीदों को जितनी तेजी से तोड़ा, वह भी एक रोचक कहानी है।

    यू-टर्न से की राजनीतिक सफर की शुरुआत

    केजरीवाल की कथनी और करनी में अंतर तो उनके आंदोलन के दिनों में ही उजागर हो गया था। अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए आंदोलन के समय उन्होंने कहा था कि वह कभी भी राजनीति में कदम नहीं रखेंगे। लेकिन अंत में वह न केवल राजनीति में आए, बल्कि धीरे-धीरे अन्य नेताओं के कई गुणों को भी अपना लिया। आइए जानते हैं राजनीतिक के मैदान में कदम रखने के बाद केजरीवाल के ऐसे ही कुछ यू-टर्न के बारे में।

    'हिट एंड रन' की राजनीति

    केजरीवाल की शुरुआती राजनीति का एक मुख्य हथियार था, विरोधी नेताओं पर आरोप लगाना और खुद को निर्दोष साबित करने का दारोमदार उन्हीं नेताओं पर छोड़ देना। इसे 'हिट एंड रन' की राजनीति का नाम दिया गया। यह ऐसा समय था जब देश 2 बड़े आंदोलन (लोकपाल और निर्भया आंदोलन) देख चुका था और देशभर में राजनीतिक चेतना उफान पर थी। केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का एक प्रतीक बन चुके थे, इसलिए उनके आरोपों से उन्हें खूब फायदा हुआ।

    जिन पर लगाए आरोप, आज उन्हीं की कर रहे तारीफ

    केजरीवाल ने अपनी 'हिट एंड रन' की राजनीति के दौरान अरुण जेटली, नितिन गडकरी और बिक्रम सिंह मजीठिया समेत कई नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए। बाद में मानहानि का मुकदमा होने पर उन्होंने इन सभी से लिखित माफी मांग ली। गडकरी को तो आरोपों के कारण भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी तक गंवानी पड़ी थी। अब केजरीवाल इन्हीं गडकरी की तारीफ करते हुए नजर आते हैं। यह नजदीकी नैतिकता की बड़ी लकीर खींचने वाले केजरीवाल पर बड़े सवाल खड़े करती है।

    पार्टी के अंदर घोंटा लोकतंत्र का गला

    केजरीवाल शुरुआती दौर में खुद को लोकतंत्र का पहरेदार और सबके विचारों की इज्जत करने वाले नेता की तरह पेश करते थे। इन्हीं केजरीवाल ने AAP के अंदर लोकतंत्र का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी की कमियों पर सवाल उठाने के लिए उन्होंने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे संस्थापक नेताओं तक को बाहर निकाल दिया। आज पार्टी पर उनका एकछत्र राज है और उनके खिलाफ आवाज उठाने वाले हर नेता को किनारे कर दिया जाता है।

    लोकायुक्त को संपत्ति की जानकारी नहीं दे रहे AAP विधायक

    लोकपाल केजरीवाल का एक बड़ा मुद्दा रहा था। लेकिन हाल ही में AAP के 50 विधायकों ने दिल्ली लोकायुक्त को अपनी संपत्ति की जानकारी देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि इसका कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। 'पाक साफ' AAP नेताओं का अपनी संपत्ति की जानकारी देने से इनकार करने का यह मामला बताता है कि कैसे केजरीवाल के नेतृत्व में पार्टी अपने मूल मुद्दों से ही भटक चुकी है।

    भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस को भी समर्थन

    केजरीवाल के उभार में कांग्रेस और उसके राज में हुए भ्रष्टाचार का कट्टर विरोध सबसे अहम था। उन्होंने शीला दीक्षित के खिलाफ सबूतों की पूरी फाइल होने का दावा करते हुए उन्हें जेल भेजने की बात कही थी। शीला तो जेल नहीं गईं, लेकिन केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से 49 दिनों की सरकार जरूर चलाई। अभी भी लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के लिए AAP, कांग्रेस को समर्थन करने के संकेत देते हुए नजर आती है।

    खुद की खींची नैतिकता की लकीर में फंसे केजरीवाल

    संभावित महागठबंधन, जिसमें शामिल कई नेताओं पर उन्होंने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, में केजरीवाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए संभावना तलाश रहे हैं। यह कहा जा सकता है कि यह उनका राजनीतिक अधिकार है, लेकिन यह उन नैतिक पैमानों के बिल्कुल उलट है, जो केजरीवाल ने तय किए थे। यही पैमाने उन्हें बाकी नेताओं से अलग बनाते थे और आज जब ये खो चुके हैं तो ये कहा जा सकता है कि केजरीवाल एक परिपूर्ण नेता बन चुके हैं।

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