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    क्यों खतरनाक है मीडिया का CRPF कॉन्स्टेबल खुशबू चौहान को "देश की आवाज" बताना?

    क्यों खतरनाक है मीडिया का CRPF कॉन्स्टेबल खुशबू चौहान को "देश की आवाज" बताना?

    लेखन मुकुल तोमर
    Oct 06, 2019
    09:25 pm

    क्या है खबर?

    मानवाधिकार के मुद्दे पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) कॉन्स्टेबल खुशबू चौहान के भाषण की मीडिया और सोशल मीडिया पर जमकर तारीफ हो रही है।

    मीडिया में उनकी कही बातों को देश और सेना की आवाज बताया जा रहा है।

    इसमें कोई शक नहीं है कि खुशबू का भाषण जोशीला और मानवीय संवेदनाओं से भरा हुआ है।

    लेकिन असली सवाल ये है कि क्या ये भाषण सही है? क्या मीडिया द्वारा खुशबू को आदर्श की तरह पेश करना सही है?

    विचार

    गोली निर्दोष को लगेगी या आतंकी को, ये सोचने से है खुशबू को दिक्कत

    खुशबू अपने भाषण में कहती हैं कि जवान इस डर के साथ गोलियों का प्रयोग करते हैं कि कहीं वो किसी निर्दोष को न लग जाएं, जबकि उग्रवादियों और आतंकियों को ऐसा नहीं सोचना होता।

    उनकी भाषा और तेवर से जो निकल कर सामने आता है वो ये कि वह चाहती हैं कि सैनिकों को गोली चलाने से पहले ये सोचना न पड़े कि वह किसी निर्दोष को लगेगी या किसी आतंकी को, तभी आतंकवाद से निपटा जा सकता है।

    मूल्यों में अंतर

    ये रोड़ा नहीं, उग्रवादियों और सेना के बीच सबसे अहम अंतर है

    दरअसल खुशबू जिस "रोड़े को हटाने" की मांग कर रही हैं, वह सेना और उग्रवादियों के बीच सबसे अहम अंतरों में से एक है।

    एक नजरिए से देखा जाए तो उग्रवादी और आतंकी भी किसी व्यक्ति की जान लेते हैं और सैनिक भी।

    लेकिन दोनों को जो चीज अलग बनाती है वो ये कि आतंकी निर्दोष लोगों की जान लेने से पहले एक बार भी नहीं सोचते और सेना आम नागरिकों को कोई भी नुकसान पहुंचाने से परहेज करती है।

    जानकारी

    बिना सोचे-समझे गोली चलाने की मंजूरी देना किसी के हित में नहीं

    यही कारण है कि लोग सेना से प्यार करते हैं और उग्रवादियों और आतंकियों से नफरत। अगर इस भेद को मिटा दिया जाए और सैनिकों को इससे मुक्त कर दिया जाए तो उस स्थिति और "सैन्य तानाशाही" में बहुत ज्यादा अंतर नहीं होगा।

    भाषण

    कन्हैया के सीने में तिरंगा गाढ़ने की मांग कर रही हैं खुशबू

    भाषण का सबसे खतरनाक हिस्सा वो है जहां खुशबू JNU देशद्रोही नारों का जिक्र करते हुए कन्हैया को देशद्रोही कहती हैं और लोगों को कन्हैया के खिलाफ हिंसक कदम उठाने के लिए उकसा रही हैं।

    वह कहती हैं, "उस घर में घुसकर मारेंगे जिस घर से अफजल निकलेगा, वो कोख नहीं पलने देंगे जिस कोख से अफजल निकलेगा। उठो देश के वीर जवानों तुम सिंह बनकर दहाड़ दो और एक तिरंगा झंडा उस कन्हैया के सीने में भी गाढ़ दो।"

    भीड़ का इंसाफ

    भीड़ के न्याय करने की प्रवृत्ति को भड़का रही हैं खुशबू

    पहली बात, कन्हैया पर देशद्रोह का आरोप अभी तक साबित नहीं हुआ है।

    ऐसे में उन्हें देशद्रोही कहकर संबोधित करना सीधे-सीधे राजनीति के हाथ का खिलौना बनना है।

    दूसरी बात, अगर कन्हैया दोषी साबित होते भी हैं, तब भी उन्हें सजा देने का अधिकार केवल न्यायपालिका को है, भीड़ को नहीं।

    क्या उनका ये बयान भीड़ के न्याय करने की प्रवृत्ति को भड़काने वाला नहीं है, जिसके कारण आए दिन मॉब लिंचिंग की घटनाएं होती हैं?

    न्यायिक प्रक्रिया

    न्यायिक प्रक्रिया से भी है खुशबू को दिक्कत

    अपने भाषण के अंत में खुशबू कहती हैं कि उन्हें देश की न्यायिक प्रक्रिया पर अफसोस है जहां रात के 12 बजे अजमल कसाब जैसे आतंकी के लिए सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खोल दिए जाते हैं।

    लेकिन शायद उन्हें ये नहीं पता कि इसी देश के कई शीर्ष नेता विदेश जाकर आतंकियों के लिए भी आधी रात कोर्ट खोलने को भारत के एक न्यायप्रिय और मानवाधिकारों का पालन करने वाला देश होने के उदाहरण के तौर पर पेश करते हैं।

    क्या आप जानते हैं?

    क्या खुशबू जैसी है देश की सोच?

    इस पूरे घटनाक्रम की जो सबसे खतरनाक बात है, वो है टीवी मीडिया द्वारा खुशबू को देश और सेना की आवाज के तौर पर पेश करना। क्या मानवाधिकारों और न्यायपालिका के लिए देश की भी वही "तिरस्कार भरी" सोच है, जो खुशबू की है?

    खतरा

    मीडिया को खुशबू को हीरो बताना बेहद खतरनाक!

    अगर साफ बात करें तो सेना ऐसी परिस्थितियों में काम करती है जहां इंसानी क्रूरता अपने चरम पर होती है।

    ऐसे में उनसे मानवाधिकारों के सख्त पालन की उम्मीद करना नाजायज नहीं तो पूरी तरह से जायज मांग भी नहीं है।

    इस परिस्थिति में खुशबू की बात को एक बार के लिए समझा भी जा सकता है। लेकिन "नागरिकों के हक की बात" कहने वाली मीडिया को उन्हें हीरो की तरह पेश करना समझ से परे और खतरनाक है।

    राष्ट्रवाद और हिंसा

    राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा को सामाजिक मंजूरी दिला रही मीडिया

    समाज में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति और मॉब लिंचिंग आदि घटनाओं पर नेताओं से "सख्त सवाल" पूछने वाली मीडिया इस हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ाने की एक अहम हिस्सेदार है और खुशबू को "देश की आवाज" बताना इस कड़ी में सबसे नया उदाहरण है।

    दरअसल, आज के "घोर राष्ट्रवादी दौर" में मीडिया नेताओं के साथ मिलकर राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा को सामाजिक मंजूरी दिला रही है और उनका ये प्रयोग देश के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।

    JNU घटना

    JNU घटना के समय भी मीडिया ने फैलाई थी नफरत

    इस हिंसक प्रवृत्ति के लिए मीडिया क्यों जिम्मेदार है, ये समझाने के लिए आपको थोड़ा पीछे ले चलते हैं।

    फरवरी 2016 में JNU घटना के समय की मीडिया की रिपोर्टिंग आपको याद है?

    टीवी मीडिया पर कन्हैया, उमर खालिद समेत अन्य लोगों को कैसे देशद्रोही की तरह पेश किया गया था।

    ये खुद अदालत लगाकर खुद फैसला करने की सबसे निर्णायक घटनाओं में से एक थी, जिसका सबसे हिंसक स्वरूप मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएं हैं।

    जानकारी

    डॉ कफील खान को कहा था "डॉ कातिल"

    एक अन्य उदाहरण में 2017 में गोरखपुर में बच्चों की मौत के मामले में कई टीवी चैनलों ने "खुद फैसला" सुनाते हुए डॉ कफील खान को "डॉ कातिल" बताया था। जिन्हे आरोपमुक्त कर दिया गया है। हालांकि, कई मामलों में उनके खिलाफ जांच जारी है।

    असर

    कुछ इस तरीके से लोगों में बढ़ रहीं हिंसक प्रवृत्तियां

    दरअसल, जब लोग मीडिया और अपने चहेते एंकर्स को खुद "अदालत लगाकर" फैसला सुनाते हुए देखते हैं और देखते हैं कि उनके चहेते नेता सरेआम लोगों को मारने-पीटने की बात कर रहे हैं, तो उनमें भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देकर बच निकलने का साहस आता है।

    इस साहस से समाज में हिंसक प्रवृत्ति का जन्म होता है, हिंसा को सामाजिक स्वीकृति मिलती है और खुलेआम हिंसा की बात करने वाले एंकर्स और नेता युवाओं के हीरो बनते हैं।

    पतन

    मानवीय मूल्यों में गिरावट का प्रतीक है मानवाधिकार के प्रति तिरस्कार

    जब भी एक देश के मानवीय मूल्यों में गिरावट आती है और वह एक गहरे गड्ढे की तरफ जा रहा होता है तो सबसे पहले मानवाधिकार जैसे मूल्यों और न्यायपालिका जैसी व्यवस्थाओं को बेकार बताया जाता है और लोगों के मन में इनके प्रति नफरत पैदा की जाती है।

    खुशबू का भाषण और मीडिया का उन्हें हीरो की तरह पेश करना इसका उदाहरण है और इसको स्वीकृति दिलाने की कोशिश बताती है कि हम ऊपर नहीं, नीचे जा रहे हैं।

    क्या आप जानते हैं?

    क्या देश की जनता भी खुशबू को अपनी आवाज मानती है?

    मीडिया के विपरीत हमें उम्मीद है कि देश की जनता के लिए खुशबू का भाषण "देश की आवाज" नहीं है। लेकिन अगर ये सचमुच देश की आवाज है, तो हमें मान लेना चाहिए कि हम राष्ट्रीय पतन के गहरे गड्ढे में जा चुके हैं।

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