#NewsBytesExplainer: फिल्मों में कैसे काम करती है 'क्रोमा की', क्यों हरे पर्दे पर होती है शूटिंग?
क्या है खबर?
साइंस-फिक्शन फिल्मों में अक्सर हम पर्दे पर दूसरी दुनिया में पहुंच जाते हैं। धरती पर बैठे-बैठे सारा अंतरिक्ष हमारी आखों में उतर आता है। क्या कभी दिमाग में जोर डाला कि ऐसे नजारे दुनिया में कहां हैं?
हॉलीवुड फिल्में अक्सर हमें ऐसे दृश्यों से चौंकाती हैं। पर्दे पर जादुई नजारे दिखाने का सारा कमाल हरे पर्दे का है।
जिस तकनीक का इस्तेमाल इन दृश्यों को फिल्माने में किया जाता है उसे 'क्रोमा की' कहते हैं।
आइए इसके बारे में जानें।
तकनीके
कैसे काम करती है तकनीक?
क्रोमा तकनीक के जरिए एक ही रंग के पर्दे के सामने सारे सीन शूट किए जाते हैं। आमतौर पर ऐसे पर्दों का रंग हरा या नीला रखा जाता है, इसलिए क्रोमा को 'ब्लू स्क्रीन' या 'ग्रीन स्क्रीन' के तौर पर जाना जाता है।
एडिटिंग के दौरान कंप्युटर प्रोग्राम्स के जरिए एडिटर आसानी से फिल्म के कुछ हिस्सों को हटा देते हैं और वहां अलग सीन बना देते हैं। इसके जरिए बैकग्राउंड पूरी तरह से बदला जा सकता है।
प्रयोग
एक्शन, एनिमेशन और साइंस फिक्शन फिल्मों में होता है इस्तेमाल
हरे पर्दे का इस्तेमाल अक्सर एक्शन, साइंस फिक्शन और एनिमेशन फिल्में बनाने में किया जाता है।
किसी भी वीडियो एडिटिंग साफ्टवेयर में एक सुविधा होती है, जिसे 'क्रोमा की' कहते हैं। यह किसी भी वीडियो से हरे रंग और नीले रंग को पूरी तरह से हटाकर पारदर्शी कर देती है।
अगर आप हरे रंग के कपड़े पहनकर शूटिंग करते हैं और फिर चाहें कि आपके शरीर पर कोई कपड़ा न दिखे तो क्रोमा के जरिए ऐसा किया जा सकता है।
बगब्र
क्यों हरे रंग का ही होता है प्रयोग?
हरा रंग किसी भी रंग के मुकाबले रोशनी को अपने में समाहित करने की ज्यादा क्षमता रखता है, वहीं इंसानी शरीर का कोई भी हिस्सा हरे रंग का नहीं होता, इसलिए ऐसे बैकग्राउंड को एडिट करने में आसानी होती है।
क्रोमा की के कारण आप सुपरहीरो को चांद या मंगल ग्रह पर देखते हैं। 'एवेंजर्स' सीरीज और 'अवतार: द वे ऑफ वॉटर' की ज्यादातर शूटिंग 'क्रोमा' के जरिए हुई।
प्रभास की फिल्म 'सालार' में भी यह तकनीक इस्तेमाल हुई है।
जानकारी
आसान उदाहरण से समझिए
न्यूज चैनल पर बाढ़ की खबर पढ़ते हुए एंकर के पीछे बाढ़ का दृश्य दिखता है। लगता है मानों एंकर बाढ़ के बीचों-बीच खड़े होकर समाचार पढ़ रहा हो, लेकिन असल में वह स्टूडियो में एक हरे रंग के पर्दे के सामने खड़ा होता है।
दौर
1980 के दशक में भारत में नहीं आई थी 'क्रोमा की' तकनीक
अगर आपको 1980 के दशक में आया रामानंद सागर का धारावाहिक 'रामायण' देखा होगा तो आपको इसके वो दृश्य भी याद होंगे, जिनमें युद्ध के दौरान दोनों सेनाएं एक नीयत दूरी पर खड़ी हो जाती थी और दोनों ओर के योद्धाओं में हवाई मार्ग से युद्ध हुआ करते थे।
दरअसल, तब न तो क्रोमा था कि युद्ध का भव्य मैदान। न तो उतना उन्नत VFX था, जिससे 10 आदमी की सेना को 100 आदमी की सेना दिखा दिया जाए।
चलन
'अलिफ लैला' से शुरू हुआ देश में इस तकनीक का चलन
क्रोमा तकनीक भारत में आने के बाद इसका सबसे ज्यादा प्रभाव धारावाहिक 'अलिफ लैला' पर पड़ा।
इस टीवी शो में ऐसे कई दृश्य दिखे, जिनमें अचानक दीवार से जिन निकल आता था, कभी किसी के फूंकने पर कोई दैत्य निकल आता था, कभी हवन के कुंड से दानव निकलते दिखता था।
हॉलीवुड में तो पहले से इनका खूब प्रयोग होता रहा है। बॉलीवुड में भी उन्हीं की देखा-देखी यह चलन शुरू हुआ और अब इसका प्रयोग बढ़ रहा है।
प्रभाव
क्रोमा का सिनेमा पर प्रभाव
इस तकनीक के आने से दर्शकों को रोमांचकारी दृश्य देखने को मिल जाते हैं। क्रोमा के जरिए फिल्माए गए दृश्य दर्शकों को वास्वकिता के करीब ले जाते हैं।
क्रोमा के आने के बाद फिल्मकारों-पटकथा लेखकों को चौंकाने वाले दृश्य सोचने की आजादी मिल गई है।
कुछ समय पहले तक कठिन दृश्यों के दौरान अभिनेताओं की जान जाने तक की नौबत आ जाती थी। बॉडी डबल का प्रयोग भी कठिन था, लेकिन क्रोमा ने उनका काम आसान कर दिया है।