#NewsBytesExplainer: उत्तराखंड में सशक्त भू-कानून और मूल निवास की मांग क्यों उठ रही है?
उत्तराखंड में एक नया जनांदोलन खड़ा हो रहा है। राज्य गठन के बाद पहली बार राजधानी देहरादून की सड़कों पर रैली के रूप में एक जनसैलाब उमड़ा था। इसमें सत्तारूढ़ भाजपा को छोड़कर सभी राजनीति पार्टियों और सामाजिक संगठनों ने हिस्सा लिया। 24 दिसंबर को सड़कों पर उतरे लोगों की मांग राज्य में एक सशक्त भू-कानून बनाने और मूल निवास, 1950 लागू करने की है। आइए इस भू-कानून और मूल निवास के मुद्दों को विस्तार से समझते हैं।
सशक्त भू-कानून की क्यों हो रही मांग?
उत्तराखंड एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि, गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं। साल 2000 में राज्य गठन के बाद यहां 'विकास' के नाम पर भू-कानून में कई बदलाव किए गए हैं। सशक्त भू-कानून न होने की वजह से राज्य में बाहरी लोगों और कॉरपोरेट घराने में बड़े पैमाने में जमीन की खरीद-फरोख्त की है। इस वजह से यहां के मूल निवासी और भूमिधर अब भूमिहीन हो रहे हैं।
भू-कानून में कब-कब हुए फेरबदल?
उत्तराखंड गठन के बाद भी यहां अभिवाजित उत्तर प्रदेश का भू-कानून 1960 लागू था। 2003 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसमें संशोधन किया और राज्य का भू-कानून अस्तित्व में आया। 2008 में भी हुए संशोधन बाद भूमि खरीद-फरोख्त को लेकर सख्त बाध्यताएं लागू हुईं। इसके बाद 2018 में भाजपा सरकार ने पर्वतीय क्षेत्र में उद्योगों के नाम जमीन खरीदने की सभी बाध्यताओं को समाप्त कर दिया। साथ ही कृषि भूमि का भू उपयोग बदलने की प्रकिया भी आसान कर दी।
भू-कानून की मांग पर अब तक क्या हुआ?
2018 में हुए संशोधन के बाद उत्तराखंड में सशक्त भू-कानून की मांग चली आ रही है। मुख्यमंत्री बनने के बाद पुष्कर सिंह धामी ने भू-कानून पर विचार के लिए एक समिति गठित की थी, जिसने 2022 में ही अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप थी। अब 22 दिसंबर, 2023 को अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में एक 5 सदस्यीय समिति का गठन किया है। दावा किया जा रहा है कि सरकार भू-कानून में फेदबदल कर सकती है।
राज्य में कुल कितने प्रतिशत बची है कृषि भूमि?
राज्य के कुल क्षेत्रफल 56.72 लाख हेक्टेयर है। इसमें से 63.41 प्रतिशत क्षेत्र वन क्षेत्र के तहत आता है, जबकि कृषि योग्य भूमि बेहद सीमित महज 14 प्रतिशत यानी 7.41 लाख हेक्टेयर की करीब है। जानकारों का दावा है कि राज्य की सीमित कृषि भूमि का इस्तेमाल बुनियादी ढांचे के विकास में हुआ है और तराई क्षेत्र में उद्योग और शहर का विस्तार हुआ है, जबकि पर्वतीय इलाकों में कृषि भूमि बांध और अन्य विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ गई।
क्या है मूल निवास का मुद्दा?
उत्तराखंड में मूल निवास को लेकर 1950 की समय सीमा लागू करने की मांग है। राज्य गठन के बाद पहली भाजपा सरकार ने यहां मूल निवास के साथ और स्थायी निवास को एक मानते हुए एक आदेश जारी किया था। तब 15 साल से पहले से उत्तराखंड में रह रहे लोगों के लिए स्थायी निवास की व्यवस्था बनाई गई। इसके बाद से ही राज्य में स्थायी निवास की व्यवस्था शुरू हो गई, लेकिन मूल निवास का मुद्दा बना रहा।
सुप्रीम कोर्ट ने मूल निवास पर क्या दिया आदेश?
2010 में मूल निवास का मुद्दा नैनीताल हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। इस संबंध में 2 प्रकार की याचिकाएं दायर की गई। इन याचिकाओं को दायर करने का मुख्य उद्देश्य राज्य के नागरिकों को मूल निवासी घोषित ही करना था। तब सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर देश में एक व्यवस्था यानी राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन मूल निवास 1950 को जारी रखने के लिए आदेश दिया। साथ ही स्थायी और मूल निवास का मुद्दा हाई कोर्ट पर छोड़ दिया।
मूल निवास में कहां उलझा पेंच?
2012 में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया कि स्थायी और मूल निवास एक ही है और राज्य गठन के दिन से जो भी व्यक्ति राज्य में रह रहें थे वो उत्तराखंड के स्थायी निवासी हैं। तत्कालीन कांग्रेस की सरकार ने आदेश को स्वीकार कर लिया और इस पर कोई अपील नहीं की, जबकि उत्तराखंड के साथ अस्तित्व में आए झारखंड और छत्तीसगढ़ में 1950 को मूल निवास का आधार माना गया है।
क्या है लोगों की सरकार से मांग?
मूल निवास और भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति ने इस जनांदोलन को खड़ा किया है। उसकी प्रमुख मांगें है कि उत्तराखंड में ठोस भू-कानून और शहरी क्षेत्र में 250 वर्ग मीटर भूमि खरीदने की सीमा लागू हो, ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर गैर कृषक की ओर से कृषि भूमि खरीदने पर रोक लगे। इसके अलावा पर्वतीय क्षेत्रों में लगने वाले उद्यमों, परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण में मूल निवासियों का हिस्सा हो और 1950 को मूल निवास का आधार माना जाए।