कौन थे आदिवासी नेता बिरसा मुंडा, जिनका प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस संबोधन में किया जिक्र?
क्या है खबर?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को 78वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित किया।
इस दौरान उन्होंने देश की आजादी के लिए अपने जीवन का बलिदान देने वाले सभी स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि दी और कहा कि देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा।
इस दौरान उन्होंने आदिवासी नेता बिरसा मुंडा का भी जिक्र किया और कहा कि देश को एकजुट होकर उनकी 150वीं जयंती मनानी चाहिए।
आइए जानते हैं बिरसा मुंडा कौन थे।
संबोधन
मुंडा को लेकर क्या बोले प्रधानमंत्री मोदी?
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, "स्वतंत्रता संग्राम से पहले एक आदिवासी व्यक्ति ब्रिटिश सेना के लिए सिरदर्द बन गया था। उन्होंने महज 20-22 साल की उम्र में ही अंग्रेजों की दांत खट्टे कर दिए थे। आज हम उन्हें भगवान बिरसा मुंडा के नाम से जानते हैं।"
उन्होंने कहा, "उनकी 150वीं जयंती आ रही है। वह सभी के लिए प्रेरणा हैं। उन्होंने दिखाया कि समाज का सबसे छोटा आदमी भी बड़ा बदलाव ला सकता है। आइए एकजुट होकर उनकी 150वीं जयंती मनाएं।"
परिचय
सबसे पहले जानते हैं कौन थे बिरसा मुंडा?
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को झारखंड के उलिहातू गांव की मुंडा जनजाति में हुआ था। उन्हें बांसुरी बजाने का शौक था।
वह सामान्य कद-काठी के थे और उनका कद 5 फीट 4 इंच था। उनकी शुरुआती पढ़ाई सालगा में जयपाल नाग की देखरेख में हुई थी।
उन्होंने एक जर्मन मिशन स्कूल में प्रवेश के लिए ईसाई धर्म अपना था, लेकिन अंग्रेजों के आदिवासियों का धर्म बदलवाने की मुहिम चलाने पर उन्होंने ईसाई धर्म छोड़ दिया।
विरोध
मुंडा ने स्कूली स्तर पर ही शुरू कर दिया था विरोध
एक कहानी के अनुसार, एक ईसाई अध्यापक ने एक बार मुंडा लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग कर दिया था। इस पर मुंडा ने कक्षा का बहिष्कार कर दिया।
इस पर उन्हें स्कूल से ही निकाल दिया गया था। बाद में उन्होंने अपना नया धर्म 'बिरसैत' शुरू किया। जल्दी ही मुंडा और उरांव जनजाति के लोग उनके धर्म को मानने लगे।
इसके बाद उन्होंने अंग्रेज़ों की धर्म बदलवाने की नीति को एक तरह की चुनौती के तौर ले लिया।
बगावत
मुंडा ने 1895 में आयोजित किया था अपना पहला विरोध मार्च
मुंडा ने 1895 के भीषण अकाल के दौरान चाईबासा में वन करों की माफी के लिए अपना पहला विरोध मार्च आयोजित किया था।
उस दौरान उन्होंने एक नारा "अबूया राज एते जाना/ महारानी राज टुडू जाना" दिया था, जिसका मतलब था कि अब रानी का राज समाप्त करो अपना राज लेकर आओ।
उन्होंने अंग्रेजों खदेड़ने के लिए हथियारों और गुरिल्ला युद्ध का इस्तेमाल करते हुए उलगुलान आंदोलन चलाया और लोगों को टैक्स देने से मना कर दिया।
इनाम
अंग्रेजों ने मुंडा पर रखा था 500 रुपये का इनाम
आंदोलन में मुंडा ने पुलिस स्टेशनों और जमींदारों की संपत्ति पर हमला शुरू कर दिया। अंग्रेजों के झंडों को उखाड़कर सफेद झंडा लगाया दिया, जो मुंडा राज का प्रतीक था।
इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया था। उन्होंने मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रुपए का इनाम रखा था, जो उस जमाने में बड़ी रकम हुआ करती थी।
बाद में 24 अगस्त, 1895 को उन्हें पहली गिरफ्तार किया गया था और 2 साल जेल की सजा हुई थी।
गुस्सा
अंग्रेजों के खिलाफ मुंडा में भरा गुस्सा
जेल में रहने के दौरान मुंडा के दिल में अंग्रेजों से बदले की भावना तेज हो गई।
जेल से रिहा होने के बाद वह 2 साल भूमिगत रहे, लेकिन आंदोलन को तेज करने के लिए अपने लोगों के साथ गुप्त बैठकें जारी रखीं।
1899 तक उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष और मजबूत कर लिया था। उस दौरान आदिवासी विद्रोह के चलते रांची के जिला कलेक्टर को इस आंदोलन को दबाने के लिए सेना की मदद तक मांगनी पड़ गई थी।
जानकारी
400 आदिवासियों की गई थी जान
डोम्बारी पहाड़ी पर सेना और आदिवासियों की भिड़ंत हुई थी, जिसमें 400 आदिवासी मारे गए थे, लेकिन अंग्रेज पुलिस ने सिर्फ 11 लोगों के ही मारे जाने की पुष्टि की थी। हालांकि, इस विद्रोह से अंग्रेजी हुकूमत की जड़े हिल गई थी।
मौत
25 साल की उम्र में जेल में हुई मुंडा की मौत
अंग्रेजों ने विद्रोह को खत्म करने के लिए गिरफ्तारी वॉरंट जारी कर दिया था। जिसके चलते 3 मार्च, 1900 को मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया।
जेल जाने के बाद मुंडा की तबीयत लगातार बिगड़ती गई। उन्हें बिल्कुल एकांत में रखा गया था। इसके बाद 9 जून, 1900 को सुबह 9 बजे मुंडा ने महज 25 साल की उम्र में दम तोड़ दिया।
हालांकि, उनके दोस्तों का दावा है कि उन्हें अंग्रेजी हुकुमत ने मारने के लिए जहर दिया था।
जोश
मुंडा की मौत ने लोगों ने भर दिया जोश
मुंडा की मौत ने लोगों में जोश भर दिया। इसके साथ ही वह आदिवासी समाज में भगवान की तरह पूजे जाने लग गए।
आदिवासी समाज संगठित होकर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत पर उतर आया। इससे अंग्रेज खासे परेशान हुए और उन्हें आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कानून लाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
इसके बाद साल 1940 में रांची में हुए कांग्रेस के सम्मेलन में मुख्य द्वार का नाम मुंडा गेट रखा गया।