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    नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन: रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला की बरसी का दिन ही क्यों?

    नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन: रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला की बरसी का दिन ही क्यों?
    लेखन मुकुल तोमर
    Dec 19, 2019, 09:54 am 1 मिनट में पढ़ें
    नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन: रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला की बरसी का दिन ही क्यों?

    नागरिकता कानून के खिलाफ आज पूरे देश में एक साथ प्रदर्शन होने वाले हैं। इस दौरान कई नामी-गिरामी लोग सड़क पर उतरेंगे। देशव्यापी प्रदर्शन के लिए 19 दिसंबर के दिन को इसलिए चुना गया है क्योंकि इसी दिन 1927 में क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इन दोनों क्रांतिकारियों की दोस्ती को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है। कौन थे ये महान क्रांतिकारी और उन्हें फांसी क्यों दी गई, आइए जानते हैं।

    आर्य समाजी थे रामप्रसाद बिस्मिल, असहयोग आंदोलन में लिया था हिस्सा

    रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। वो आर्य समाजी थे और उनके नाम के आगे पंडित लगाया जाता था। आजादी आंदोलन में अपने योगदान की शुरूआत में वो असहयोग आंदोलन से जुड़े। लेकिन 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने आंदोलन का वापस ले लिया तो बिस्मिल ने रास्ता बदल लिया और क्रांति के रास्ते पर चल पड़े।

    अशफाक का जन्म भी शाहजहांपुर में हुआ

    अशफाक का जन्म भी 22 अक्टूबर, 1900 को शाहजहांपुर में हुआ था। अपने चार भाईयों में सबसे छोटे अशफाक को शायरी लिखने का शौक था और उनकी पहचान एक उभरते हुए शायर के तौर पर की जाती थी।

    भाइयों से तारीफ सुनकर बिस्मिल के प्रशंसक हुए अशफाक

    अशफाक के घर में जब भी शायरी की बात होती थी तब उनके बड़े भाई रामप्रसाद बिस्मिल का जिक्र जरूर करते थे, जो खुद एक अच्छे शायर थे और उन्होंने कई किताबें भी लिखीं। अपने भाइयों से बिस्मिल की इतनी तारीफ सुनकर अशफाक उनके प्रशंसक को गए। इसी समय बिस्मिल का नाम अंग्रेज सरकार के खिलाफ की गई 'मैनपुरी साजिश' में आया, जिससे अशफाक की उनसे मिलने की इच्छा और बढ़ गई।

    ऐसे हुई दोस्ती की शुरूआत

    आखिरकार अशफाक के प्रयास सफल रहे और असहयोग आंदोलन के दौरान जब बिस्मिल शाहजहांपुर में भाषण देने आए तो अशफाक उनसे मिलने में कामयाब रहे। बिस्मिल अशफाक को अपने साथ ले गए और उनके कुछ शेर सुने जो उन्हें बेहद पसंद आए। इसके बाद दोनों साथ लिखने लगे और पूरे इलाके में बिस्मिल-अशफाक की जोड़ी चर्चित हो गई। जिस भी मुशायरे में ये दोनों जाते महफिल को लूटकर ही वापस लौटते थे।

    असहयोग आंदोलन के बाद चंद्रशेखर आजाद की क्रांतिकारी पार्टी से जुड़े

    1922 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन वापस लेने से निराश होकर बिस्मिल और अशफाक ने क्रांति का रास्ता अख्तियार कर लिया और चंद्रशेखर आजाद के हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़ गए। HRA का मानना था कि मांगने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है और इसके लिए देश को लड़ना होगा। अपने लक्ष्य के लिए हिंसा के प्रयोग से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं था। बाद में भगत सिंह भी इसी संगठन का हिस्सा बने।

    हथियारों के लिए नहीं थे पैसे, काकोरी में लूटी अंग्रेजों की ट्रेन

    गुलाम भारत के ये युवा क्रांति के मार्ग पर तो निकल पड़े थे, लेकिन अंग्रेजों से लड़ने के लिए उन्हें बम, बंदूक और अन्य हथियारों की जरूरत थी और उनके पास इसके लिए पैसे नहीं थे। एक बार पैसों के लिए अंग्रेजों के खजाने को ले जाने वाली ट्रेन को लूटने की योजना बनाई गई। 9 अगस्त, 1925 को बिस्मिल, अशफाक, आजाद और उनके चंद साथियों ने मिलकर लखनऊ के काकोरी रेलवे स्टेशन से निकली ट्रेन को लूट लिया।

    अफगान दोस्त के धोखे के कारण गिरफ्तार हुए अशफाक

    काकोरी कांड के नाम से प्रसिद्ध इस लूट के बाद अंग्रेज सकते में आ गए और उन्होंने अपनी कुख्यात स्कॉटलैंड यार्ड को इसकी जांच में लगा दिया। सारे क्रांतिकारियों को जल्द ही गिरफ्तार कर लिया गया। 26 सितंबर को बिस्मिल को भी गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन अशफाक भाग निकले और दस महीनों तक बिहार की एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया। यहां से वो दिल्ली आए जहां एक अफगान दोस्त के धोखे के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

    19 सितंबर, 1927 को दी गई फांसी

    इसके बाद सभी क्रांतिकारियों पर मुकदमा चला और बिस्मिल और अशफाक को फांसी की सजा सुना दी गई। 19 सितंबर, 1927 को दोनों को अलग-अलग जगह पर फांसी दे दी गई। उनके साथ क्रांतिकारी रोशन सिंह को भी फांसी दी गई।

    अशफाक ने फांसी के फंदे को चूमा, बिस्मिल ने गाया 'सरफरोशी की तमन्ना'

    कहते हैं कि जब अशफाक को फांसी के तख्ते पर लाया गया तो उन्होंने जंजीर खुलते ही फांसी का फंदा चूम लिया। उन्होंने कहा, "मेरे हाथ लोगों की हत्याओं से सने हुए नहीं हैं। मेरे खिलाफ जो भी आरोप लगाए गए हैं झूठे हैं। अल्लाह ही अब मेरा फैसला करेगा।" वहीं बिस्मिल ने फांसी पर चढ़ाए जाने के दौरान मशहूर शायर बिस्मिल अजीमाबादी का 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है' गाया।

    जब दिल्ली के पुलिस अधिकारी ने की हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलने की कोशिश

    बिस्मिल और अशफाक की दोस्ती की गहराई को दर्शाता एक किस्सा बेहद मशहूर है। दरअसल, अशफाक जब जेल में थे तब दिल्ली के एक पुलिस अधिकारी ने हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलकर अशफाक को तोड़ने की कोशिश की। उसने अशफाक से झूठ बोलते हुए कहा कि बिस्मिल ने सच बोल दिया है और गुनाह कबूल कर सरकारी गवाह बन रहा है। उसकी कोशिश इसके जरिए अशफाक को भड़काकर सच उगलवाने की थी।

    अशफाक के जवाब ने किया साबित, हिंदू-मुस्लिम कार्ड काम का नहीं

    लेकिन बिस्मिल और अशफाक की दोस्ती इतनी कमजोर तो थी नहीं कि एक पुलिस अधिकारी के हिंदू-मुस्लिम कार्ड से टूट जाती। अशफाक ने उसे जवाब दिया, "खान साहब! पहली बात, मैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे अच्छी तरह जानता हूं और जैसा आप कह रहे हैं, वो वैसे आदमी नहीं हैं। दूसरी बात अगर आप सही भी हों तो भी एक हिंदू होने के नाते वो ब्रिटिश, जिनके आप नौकर हैं, उनसे बहुत अच्छे होंगे।"

    जब अशफाक कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्य समाजी रामप्रसाद का दाहिना हाथ बन सकते हैं...

    हिंदू-मुस्लिम एकता पर यकीन रखने वाले बिस्मिल ने कहा था, "सरकार ने अशफाक उल्ला खां को रामप्रसाद का दाहिना हाथ करार दिया है। अशफाक कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्य समाजी रामप्रसाद का हाथ बन सकते हैं, तब क्या नये भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू-मुसलमान अपने निजी छोटे-छोटे फायदों का ख्याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते।" आज इन प्रदर्शनों के जरिए हिंदू-मुस्लिम एकता का यही सवाल एक बार फिर देश से पूछा जा रहा है।

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