फैज की कविता हिंदू विरोधी है या नहीं, जानने के लिए IIT कानपुर ने बनाया पैनल
एक हैरान कर देने वाले मामले में IIT कानपुर ने एक पैनल गठित किया है जो यह देखेगा कि क्या फैज अहमद की लिखी कविता 'हम देखेंगे' हिंदू विरोधी है। दरअसल, फैकल्टी सदस्यों ने IIT प्रशासन से शिकायत की थी कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन में छात्रों ने यह 'हिंदू विरोधी कविता' गाई थी। बता दें कि IIT के छात्रों ने जामिया कैंपस में पुलिस कार्रवाई के खिलाफ एकजुटता जताने के लिए कैंपस में जुलूस निकाला था।
यह है कविता
'लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से... सब भूत उठाए जाएंगे, हम अहल-ए-वफा मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएंगे... सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे... बस नाम रहेगा अल्लाह का... हम देखेंगे...' इसकी अंतिम पंक्ति को लेकर विवाद हुआ है।
इन तीन मामलों की जांच करेगा पैनल
इस जुलूस में IIT के छात्रों ने फैज अहमद फैज की यह कविता गाई थी। इसके बाद IIT के एक शिक्षक और कुछ छात्रों ने डायरेक्टर से शिकायत की थी। शिकायत मिलने पर डायरेक्टर ने यह पैनल बनाया है। यह पैनल तीन विषयों की जांच कर रहा है। पहला मामला धारा 144 तोड़ने, दूसरा सोशल मीडिया पर छात्रों की पोस्ट और तीसरा फैज अहमद फैज की नज्म हिंदू विरोधी है या नहीं? से जुड़ा है।
शिकायतकर्ता का क्या कहना है?
IIT के डिप्टी डायरेक्टर मनिंद्र अग्रवाल ने कहा कि वीडियो में देखा जा सकता है कि छात्र फैज की कविता पढ़ रहे हैं। यह देश-विरोधी भी मानी जा सकती है। अपनी शिकायत में उन्होंने आरोप लगाया कि छात्रों ने प्रदर्शन के दौरान भारत-विरोधी और सांप्रदायिक नारे लगाए। शिकायतकर्ताओं का कहना है कि इस प्रदर्शन के आयोजकों और मास्टरमाइंड लोगों की पहचान कर उन्हें तुरंत IIT से बाहर किया जाना चाहिए।
दूसरे छात्रों का क्या कहना है?
वहीं दूसरे छात्रों का कहना है कि जिस फैकल्टी सदस्य ने यह शिकायत दी है, उसे सांप्रदायिक टिप्पणी के कारण एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने बैन कर दिया है। पुलिस की बर्बरता के विरोध में फैज की कविता की चंद लाइनें गाई थीं।
फैज ने सैन्य शासन के विरोध में लिखी थी यह कविता
क्रांतिकारी विचारों के लिए जाने जाने वाले फैज अहमद फैज का जन्म 13 फरवरी 1911 को पाकिस्तान के सियालकोट में हुआ था। पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े फैज ने 'हम देखेंगे' कविता 1979 में पाकिस्तान में सैन्य शासन के विरोध में लिखी थी। पत्रकार रहे फैज को छह से ज्यादा भाषाओं का ज्ञान था। फैज 'चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले' और 'बोल के लब आजाद हैं तेरे' जैसी नज्मों के लिए भी जाने जाते हैं।