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    हिमाचल प्रदेश में बढ़ते भूस्खलन के पीछे क्या-क्या कारण हैं?
    हिमाचल प्रदेश में साल दर साल बढ़ रही प्राकृतिक आपदाएं।

    हिमाचल प्रदेश में बढ़ते भूस्खलन के पीछे क्या-क्या कारण हैं?

    लेखन भारत शर्मा
    Aug 11, 2021
    08:10 pm

    क्या है खबर?

    प्राकृतिक सौंदर्य का गढ़ माना जाने वाला पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश अब प्राकृति आपदाओं का केंद्र बनता जा रहा है। यहां बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं आम हो गई हैं।

    बुधवार को भी किन्नौर जिले में रिकांग पियो-शिमला राजमार्ग पर भूस्खलन में 11 लोगों की मौत हो गई तथा 30 से अधिक फंसे हुए हैं।

    हालांकि, अभी तक 14 लोगों को बचा लिया गया है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर यहां इतनी प्राकृतिक आपदाएं क्यों आ रही है?

    हालत

    भारत में पिछले पांच सालों में प्राकृतिक आपदाओं में हुई 41,000 से अधिक मौतें

    न्यूज 18 के अनुसार, भारत में प्राकृतिक आपदाओं में साल 2015 से 2019 के बीच कुल 41,373 लोगों की मौत हुई है।

    इनमें 2015 में 10,510, साल 2016 में 8,684, साल 2017 में 7,143, साल 2018 में 6,891 और 2019 में 8,145 लोगों की मौत हुई।

    2019 में बिजली गिरने से 2,876, गर्मी से 1,274, बाढ़ से 948, ठंड से 796, भूस्खलन से 264, बारिश से 69, साइक्लोन से 33 और अन्य कारणों से 1,850 लोगों की मौत हुई है।

    हिमाचल

    हिमाचल प्रदेश में 13 जून के बाद हुई 200 से अधिक मौतें

    प्राकृतिक आपदाओं से हिमाचल प्रदेश खासा प्रभावित रहा है। इस साल 13 जून के बाद से अब तक विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं में 200 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है।

    27-28 जुलाई को लाहौल-स्पीति में भारी बारिश से सात लोगों की, केलांग और उदयपुर में बादल फटने से 12 लोगों की, 25 जुलाई को किन्नौर में पत्थरों के गिरने से नौ लोगों की मौत हो गई थी। इसी तरह बुधवार को भी पांच लोगों की मौत हो गई।

    जानकारी

    हिमाचाल में मुख्य रूप से ये होती हैं प्राकृतिक आपदाएं

    हिमाचल प्रदेश में मुख्य रूप से बादलों का फटने, अत्यधिक बारिश, बाढ़ और भूस्खलन के कारण प्राकृतिक आपदाएं आती है और इन्हीं कारण लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। हालांकि, विशेषज्ञों ने इनके लिए मानवीय हस्तक्षेप को प्रमुख रूप से जिम्मेदार ठहराया है।

    हस्तक्षेप

    हिमालयी क्षेत्र में सड़कों का निर्माण और जल विद्युत संयंत्रों की स्थापना है बड़ा कारण

    उत्तराखंड में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी के साथ भूविज्ञान विभाग के वाईपी सुंदरियाल ने IANS से कहा, "उच्च हिमालयी क्षेत्र जलवायु और पारिस्थितिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील हैं। ऐसे में इन क्षेत्रों में मेगा हाइड्रो-प्रोजेक्ट्स के निर्माण से बचा जाना चाहिए या फिर उनकी क्षमता कम होनी चाहिए।"

    उन्होंने कहा, "हिमालयी क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण भी वैज्ञानिक तकनीकों से किया जाना चाहिए। इनमें अच्छा ढलान, रिटेनिंग वॉल और रॉक बोल्टिंग प्रमुख है, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।"

    बदलाव

    बदलता बारिश का तरीका भी है प्रमुख कारण

    सुदरियाल ने कहा, "वर्तमान में बारिश का तरीका बदल रहा है और गर्मियों में तापमान सामान्य से कहीं अधिक पर पहुंच रहा है। ऐसे में मेगा जलविद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देने की राज्य की नीति को एक नाजुक और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में लागू किया जा रहा है।"

    उन्होंने कहा, "सतलुज बेसिन में 140 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं आवंटित की गई हैं। इससे चमोली और केदारनाथ जैसी आपदाएं आने की पूरी संभावना हैं। इन परियोजनाओं को रोकना होगा।"

    शहरीकरण

    बढ़ते शहरीकरण के कारण कम हुई मिट्टी की एकजुटता

    केंद्रीय जल आयोग के निदेशक शरत चंद्र ने कहा कि हिमालयी क्षेत्र में शहरीकरण से मिट्टी की एकजुटता कम हुई है। इसका परिणाम बाढ़ के रूप में देखने को मिल रहा है।

    उन्होंने कहा हिमालयी प्रणाली बहुत नाजुक हैं, जिससे वह जल्द ही अस्थिर हो जाती हैं। वर्तमान में बारिश भी पहले की तुलना में अधिक हो रही है। इससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि हुई है।यदि भूस्खलन नदी के पास होता है तो बाढ़ आती है।"

    ग्लेशियर

    जलवायु परिवर्तन के कारण पिघलते ग्लेशियर बने बड़ा खतरा- विशेषज्ञ

    जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि उच्च हिमालय पहले बहुत सारे ग्लेशियरों का घर था, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण अब कई ग्लेशियर पिघल गए हैं। ग्लेशियर बर्फ, मिट्टी और चट्टानों का एक गतिशील द्रव्यमान है और इसमें बहुत सारे कमजोर तलछट होते हैं।

    भूवैज्ञानिकों की माने तो ग्लेशियर पिघलने से असीमित तलछट बच जाती है। ऐसे में हल्की बारिश के बाद भी मिट्टी और पत्थरों की यह तलछट गिरकर नीचे की ओर आ जाती है।

    सावधानी

    उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रोकना होगा सुरंग और बांधों का निर्माण

    भूवैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालयी क्षेत्रों में भूस्खलन से बचने के लिए बांधों और सुरंगों के निर्माण का रोकना होगा। यदि इन्हें नहीं रोका गया तो आने वाले समय पर बड़ा विनाश देखने को मिल सकता है।

    जलवायु परिवर्तन से संबंधित सहकारी पैनल (IPCC) ने चेतावनी दी है कि 21वीं सदी में ग्लेशियर कम होंगे और हिमरेखा की ऊंचाई बढ़ेगी। इसी तरह उत्सर्जन में वृद्धि के साथ ग्लेशियर के द्रव्यमान में और गिरावट आएगी। यह एक बड़ा खतरा है।

    समाधान

    संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की बातों पर देना होगा ध्यान

    पर्यावरण अनुसंधान और हिमधारा कलेक्टिव की मानशी आशेर का कहना है कि हिमाचल प्रदेश में चंबा, किन्नौर, कुल्लू, मंडी, शिमला, सिरमौर और ऊना जिलों में अचानक बाढ़, बादल फटने और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सबसे अधिक खतरा है।

    उन्होंने कहा कि इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग दशकों से जलविद्युत विकास के खिलाफ बोल रहे हैं और इन पर रोक की मांग कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को उनकी बातों पर ध्यान देना चाहिए।

    बयान

    रणनीतिक रूप से संवदेनशील क्षेत्र है किन्नौर- भंडारी

    आदिवासी समूह के प्रकाश भंडारी ने कहा, "भूवैज्ञानिक और पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्र होने के अलावा किन्नौर रणनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है। यह बहुसंख्यक आदिवासी आबादी वाला क्षेत्र है। सेब यहां की प्रमुख अर्थव्यवस्था है। इसे बचाया जाना चाहिए।"

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