'भीड़' रिव्यू: लॉकडाउन की घटनाओं की दस्तावेज है अनुभव सिन्हा की यह फिल्म
अनुभव सिन्हा की फिल्म 'भीड़' 24 मार्च को बड़े पर्दे पर रिलीज हो गई है। यह फिल्म 2020 में कोरोना महामारी के मद्देनजर देशभर में लगे लॉकडाउन पर आधारित है। उस साल 24 मार्च को ही देशभर में लॉकडाउन की घोषणा हुई थी। फिल्म में राजकुमार राव मुख्य भूमिका में नजर आए हैं। फिल्म उस काले दौर के दृश्यों को पर्दे पर लेकर आई है, जो सबके जहन में अब भी ताजा है। जानिए, कैसी है यह फिल्म।
एक समाज के 'भीड़' बनने की है कहानी
'भीड़' कोरोना की पहली लहर के समय देश में लगे लॉकडाउन में सैंकड़ों लोगों, खासकर मजदूरों के अपने घर पहुंचने के संघर्ष की कहानी है। फिल्म एक चेकपोस्ट पर इकट्ठा हुई भीड़ और उसके सामने ध्वस्त होती सरकार और प्रशासन की व्यवस्थाएं और उनके असंवेदनशील फैसलों का एक दस्तावेज है। इसमें राजकुमार राव का किरदार प्रशासन का चेहरा है और पकंज कपूर का किरदार असहाय प्रवासियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक समाज के 'भीड़' बन जाने की कहानी है।
राजकुमार और पंकज की है यह फिल्म
फिल्म मुख्य रूप से राजकुमार और पंकज कपूर की है। दोनों का किरदार आमने-सामने है। दोनों अपने किरदार को पकड़ने में कामयाब रहे हैं। हालांकि, पंकज के अनुभव के सामने राजकुमार कमजोर नजर आते हैं। मुख्य अभिनेत्री भूमि पेडनेकर हैं, लेकिन उनका अभिनय अपने किरदार के साथ न्याय नहीं कर सका। आशुतोष राणा की मौजूदगी भर प्रभावित करती है। दीया मिर्जा का किरदार सारी भीड़ के बीच एक अलग वर्ग को दर्शाता है। इसे उन्होंने बखूबी पेश किया है।
असली कलाकार हैं 'भीड़' और उनको दिखाती सिनेमैटोग्राफी
तगड़ी स्टारकास्ट होने के बाद भी फिल्म की असल कलाकार 'भीड़' है और इस भीड़ को सहेजता कैमरा इसकी ताकत है। लॉकडाउन के दृश्य, विभाजन के दृश्य से कितने मिलते-जुलते हैं, इसे दिखाने के लिए अनुभव सिन्हा ने फिल्म को ब्लैक एंड वाइट में रिलीज किया है। वह इसमें काफी हद तक कामयाब हुए। भूख से रोते-बिलखते बच्चे, घर पहुंचने की जिद में घायल लोग, उनके जख्म विभाजन की तस्वीरों के काफी करीब लगते हैं।
बिना ठोस कहानी के सामाजिक असमानता को दिखाती है फिल्म
ट्रेलर देखकर लगता है कि फिल्म कोरोना महामारी पर आधारित है, लेकिन असल में यह लॉकडाउन में ध्वस्त हुए सामाजिक न्याय पर केंद्रित है। फिल्म बिना किसी ठोस कहानी के लॉकडाउन की दुखद और असंवेदनशील घटनाओं को पेश करती चलती है। फिल्म प्रशासन द्वारा लिए गए फैसलों पर सवाल उठाती चलती है। ऐसे में यह एजेंडा से प्रभावित फिल्म लगने लगती है। लॉकडाउन, मजदूरों का सड़कों पर चलना, जात-पात, तब्लीगी जमात, अनुभव सबकुछ शामिल करने के दबाव में लगते हैं।
गायब हैं लॉकडाउन की सकारात्मक कहानियां
देश में अचानक आई इस आफत और ध्वस्त सरकारी तंत्र की कहानी के बीच राजकुमार और भूमि के किरदार का रोमांटिक ऐंगल बेवजह लगता है। बात प्रवासी मजदूरों की हो, तो सोनू सूद और उनके द्वारा घर पहुंचाए गए लोगों का जिक्र न होना बेइमानी है। बेशक, लॉकडाउन के संघर्ष की कोई तुलना नहीं है, लेकिन इसी दौरान लोगों की एक-दूसरे की मदद करने के कई मिसाल सामने आए थे। अनुभव ने फिल्म को सिर्फ सामाजिक असामानता पर समेट दिया।
संवाद बने निर्देशक की ताकत
इन सभी कमजोरियों के बीच फिल्म के संवाद इसे दमदार बनाते हैं। जिस असमानता और अन्याय को अनुभव दिखाना चाहते हैं, वह फिल्म के संवाद से ही उभर सके हैं। "प्रिविलेज के हिलटॉप पर बैठकर जिस इंडिया का कंट्रीसाइड खूबसूरत लगता है, उसी हिल के नीचे एक इंडिया दबा हुआ है", "मॉल बनने के बाद मजदूरों को उसमें जाने की परंपरा नहीं है", जैसे संवाद गहरे हैं। फिल्म का संगीत और गाने भी इस भावना को दिल तक पहुंचाते हैं।
देखें या न देखें?
क्यों देखें?- दमदार सामाजिक-राजनीतिक फिल्मों के कायल हैं, तो यह फिल्म आपको देखनी चाहिए। जब देश का उच्च मध्यम वर्ग घरों में बैठकर लूडो खेल रहा था, उस वक्त सड़कों पर हो रहे संघर्ष को हर किसी को महसूस करना चाहिए। क्यों न देखें?- लॉकडाउन और कोरोना से जुड़ी बुरी यादों से अब तक उबर नहीं पाए हैं, तो इस फिल्म को मत देखिए। यह फिल्म आपको परेशान कर सकती है। न्यूजबाइट्स स्टार- 3/5