महाराष्ट्र का सियासी घमासान: क्या है दल बदल विरोधी कानून?

महाराष्ट्र में इस समय सियासी घमासान मचा हुआ है। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री और शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे ने बगावत करते हुए 49 विधायकों के समर्थन का दावा किया है। इससे राज्य की महा विकास अघाड़ी (MVA) सरकार खतरे में आ गई है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि देश में नेताओं को पार्टियां बदलने से रोकने के लिए दल बदल विरोधी कानून भी बनाया गया है। आइए जानते हैं क्या है यह कानून और क्यों पड़ी थी इसकी जरूरत।
साल 1985 में राजीव गांधी सरकार ने 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में दल बदल विरोधी कानून पारित किया था। इस कानून को संसद ने दसवीं अनुसूची रूप में संविधान में शामिल किया था। इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में दल बदल की कुप्रथा को खत्म करते हुए बनने वाली सरकारों में स्थिरता लाना था। साल 1970 के दशक से पूर्व भारतीय राजनीति में नेताओं के दल बदलने की नीति काफी प्रचलित थी।
बता दें कि 1960 के दशक में नेताओं ने अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर पार्टियां बदलते हुए सरकारों को अस्थिर करना शुरू कर दिया था। एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 1957 से 1967 के बीच 542 बार और 1967 के आम चुनाव से पहले 430 बार सांसदों-विधायकों ने अपनी पार्टियां बदली थी। 1967 के बाद तो दल बदलुओं के कारण 16 महीनों में 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं थीं। इसके कारण ही 1985 में यह कानून बनाया गया था।
इस कानून के तहत स्वेच्छा से अपनी पार्टी बदलने वाले निर्वाचित सदस्य, चुनाव जीतने के बाद किसी पार्टी में शामिल होने वाले निर्दलीय सदस्य, सदन में पार्टी के पक्ष के खिलाफ वोट करने वाले सदस्य और स्वयं को वोटिंग से अलग रखने वाले सदस्यों को अयोग्य घोषित करने का प्रावधान किया गया है। इसी तरह कोई मनोनीत विधायक या सांसद छह महीने के भीतर किसी पार्टी में शामिल होता है तो भी उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
कानून के तहत किसी भी दोषी सदस्य को अयोग्य घोषित करने की शक्ति संबंधित विधानसभा या लोकसभा के अध्यक्ष को दी गई है। शिकायत के अध्यक्ष की पार्टी से संबंधित होने पर सदन द्वारा चुने गए अन्य सदस्य को यह अधिकार दिया जाता है।
दल बदल कानून में दोषी सदस्यों की अयोग्यता पर अंतिम फैसला देने के लिए कोई समयावधि निर्धारित नहीं की गई है। यही कारण है कि कई मामलों में सालों तक फैसला नहीं आता है। इसके चलते पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के एक मंत्री को बर्खास्त भी किया था। दरअसल, स्पीकर ने तीन साल तक उनके खिलाफ दल बदल याचिका पर फैसला नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट का मानना था स्पीकर को तीन महीने के भीतर अपना फैसला देना चाहिए।
कानून के तहत कुछ विशेष परिस्थितियों में पार्टी बदलने पर सदस्यों को अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकता है। इसके तहत यदि किसी पार्टी के दो-तिहाई सदस्य किसी अन्य पार्टी में जाते हैं या इतने सदस्यों के साथ कोई पार्टी किसी अन्य पार्टी में विलय करती है तो पार्टी बदलने वाले सदस्यों और संबंधित पार्टी पर यह कानून लागू नहीं होता है। इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को भी इस कानून से छूट दी गई है।
1967 में हरियाणा विधायक गयालाल ने 15 दिन में तीन बार पार्टी बदल ली थी। वह कांग्रेस से जनता पार्टी और फिर से कांग्रेस में गए। इसके बाद फिर जनता पार्टी में चले गए। उसके बाद 'आया राम, गया राम' की कहावत शुरू हुई थी।
दल बदल विरोधी कानून के बाद भले ही नेताओं के पार्टियां बदलने की रफ्तार थम गई, लेकिन कानून के अपवादों का फायदा उठाकर नेता अभी भी कई राज्यों में सरकारों को प्रभावित कर रहे हैं। 2018 में राजस्थान में बसपा के छह विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया। साल 2019 में गोवा में कांग्रेस के 15 में से 10 और सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के 13 में से 10 विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया था।
कानून के तहत यदि कोई नेता अपनी सदस्यता से इस्तीफा देकर पार्टी बदलता है तो उस पर कानून लागू नहीं होता। इसके कारण जुलाई 2019 में कर्नाटक में कांग्रेस के 14 और JDS के तीन विधायकों ने इस्तीफा देकर सरकार गिरा दी थी। इसी तरह मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस के 22 विधायकों ने इस्तीफा देकर सरकार गिरा दी थी। बाद में इन सभी नेताओं ने उपचुनाव में भाजपा के टिकट पर जीत हासिल कर ली।
1990 में चुनाव सुधारों को लेकर गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने कहा था कि दल बदल कानून के तहत अयोग्य ठहराने की शक्ति राष्ट्रपति या राज्यपाल को दी जानी चाहिए। इसी तरह नेताओं को किसी भी स्थिति में दल बदलने पर कानून के तहत लाया जाना चाहिए। इसके अलावा 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि यदि कई पार्टियां गठबंधन कर चुनाव लड़ती हैं तो उन्हें कानून के तहत एक ही पार्टी माना जाना चाहिए।