चर्चित कानून: क्या है प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट और क्यों है इसको लेकर विवाद?
क्या है खबर?
प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट यानी एहतियातन हिरासत पर देश में लंबे समय से विवाद है। कई संगठन और अधिकारी इससे स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होने का आरोप लगाकर इसे न्यायसंगत बनाने की मांग करते आए हैं।
पिछले साल अक्टूबर में करीब 100 सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारियों ने केंद्रीय कानून मंत्री को खुला पत्र लिखकर एक्ट के पुराने प्रावधानों को खत्म करने की मांग की थी।
आइए जानते हैं कि आखिर क्या है प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट और इसको लेकर विवाद क्यों है।
सवाल
आखिर क्या है प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट?
प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट को 1950 में लागू किया गया था। इसमें पुलिस किसी भी व्यक्ति को इस शक पर हिरासत में ले सकती है कि वो अपराध करने वाला है।
इसमें पुलिस को हिरासत में लिए गए व्यक्ति को न तो कारण बताने की जरूरत है और न ही उसे वकील से परामर्श लेने देने की आवश्यकता होती है।
इसमें हिरासत में लिए गए व्यक्ति को 24 घंटे में मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने की भी जरूरत नहीं होती।
नियम
भारत में गिरफ्तारी के लिए सामान्य नियम क्या है?
अनुच्छेद 22 के तहत देश में किसी भी नागरिक को कारण बताए बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है और उसे वकील से परामर्श और बचाव करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
इसी तरह संबंधित व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना होता है।
मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना उसे 24 घंटे से ज्यादा हिरासत में नहीं रखा जा सकता, लेकिन प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट में ये प्रावधान लागू नहीं होते।
दुरुपयोग
आपातकाल के समय हुआ था एक्ट का जमकर दुरुपयोग
साल 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में देश में लागू किए गए आपातकाल के दौरान 21 महीने सरकार ने इस एक्ट का जमकर दुरुपयोग किया था।
विरोध करने वालों को महीनों तक बिना कारण के हिरासत में रखा गया था। यही कारण रहा कि 1978 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी को लोगों के विरोध के कारण हार का सामना करना पड़ा।
इसके बाद 44वें संविधान संशोधन में इस एक्ट में बड़े बदलाव किए गए थे।
प्रावधान
44वें संविधान संशोधन में क्या किया गया था प्रावधान?
44वें संविधान संशोधन की धारा-3 में कहा गया था कि प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट के तहत किसी भी नागरिक को दो महीने से ज्यादा एहतियातन हिरासत में नहीं रखा जा सकेगा।
यदि राष्ट्र की सुरक्षा के लिए आवश्यक होगा तो हाई कोर्ट के सेवारत न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला सलाहकार बोर्ड एहतियातन हिरासत की आवश्यकता की विवेचना करेगा और पर्याप्त आधार पर दो महीने से अधिक हिरासत की मंजूरी देगा।
बोर्ड के सदस्य हाई कोर्ट के सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही होंगे।
जानकारी
43 साल बाद भी लागू नहीं हो सके संशोधन के प्रावधान
इस संविधान संशोधन के 43 साल बाद भी इसके प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सका है। कारण है कि इस अवधि में सत्ता में आई किसी भी सरकार ने संशोधन की धारा-3 को प्रभावी करने के लिए अधिसूचना तक जारी नहीं की है।
हालत
साल 2020 में प्रिवेंटिव डिटेंशन में लिए गए थे 89,000 से अधिक लोग
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के रिकॉर्ड के अनुसार, साल 2020 में कुल 89,405 लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, कालाबाजारी की रोकथाम, आवश्यक सेवा रखरखाव अधिनियम और गुंडा एक्ट के तहत प्रिवेंटिव डिटेंशन में रखा गया था।
इनमें से 68,077 लोगों को एक महीने, 2,651 को एक से तीन महीने और 4,150 को तीन से छह महीने के बीच सलाहकार बोर्ड की सिफारिश पर रिहा किया गया।
इसके बाद भी साल के अंत में 14,527 लोग प्रिवेंटिव डिटेंशन में रहे।
विरोध
प्रिवेंटिव डिटेंशन को लेकर क्यों है विरोध?
विभिन्न मानवाधिकार और सामाजिक संगठनों सहित न्यायिक और प्रशासनिक अधिकारी सालों से प्रिवेंटिव डिटेंशन के पुराने प्रावधानों का विरोध करते आए हैं।
इसके पीछे प्रमुख कारण सरकारों का अपने हित के लिए एक्ट का दुरुपयोग करना रहा है।
प्रिवेंटिव डिटेंशन के आलोचकों का तर्क है कि इसमें कानूनों का दुरुपयोग करके लोगों को हिरासत में लिया जाता है और बिना सुनवाई के उनके स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का हनन किया जाता है।
टिप्पणी
प्रिवेंटिव डिटेंशन पर सुप्रीम कोर्ट भी कर चुका है सख्त टिप्पणी
पिछले साल अगस्त में एक मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रिवेंटिव डिटेंशन केवल सार्वजनिक अव्यवस्था को रोकने के लिए एक आवश्यक बुराई है। सरकार को कानून-व्यवस्था की समस्याओं से निपटने के लिए मनमाने ढंग से इस एक्ट का सहारा नहीं लेना चाहिए और ऐसी समस्याओं को सामान्य कानूनों से निपटाया जा सकता है।
कोर्ट ने ये भी कहा था कि एहतियातन हिरासत में सरकार की शक्ति को बहुत सीमित होनी चाहिए।
पत्र
100 सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी भी कानून मंत्री को लिख चुके हैं पत्र
मामले में देश के 100 सेवानिवृत्त अधिकारियों के समूह ने अक्टूबर में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू को पत्र लिखकर प्रिवेंटिव डिटेंशन पर 44वें संविधान संशोधन की धारा तीन को प्रभावी बनाने की तारीख तय करने की मांग की थी।
इस समूह में प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार टीकेए नायर, इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी एएस दुलत, पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह और पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई जैसे बड़े नाम शामिल हैं।
तर्क
समूह ने प्रिवेंटिव डिटेंशन के प्रावधानों को बताया था असंवैधानिक
पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त हबीबुल्ला ने BBC हिंदी से कहा था कि प्रिवेंटिव डिटेंशन के प्रावधान असंवैधानिक है। इन पर कानून के शासन के सिद्धांत लागू नहीं होते और इनका दुरुपयोग होता है।
उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में प्रिवेंटिव डिटेंशन की आवश्यकता ही नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस तरह के एक्ट अनुचित हैं।
इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन के अनुसार, लोकतांत्रिक देश में प्रिवेंटिव डिटेंशन जैसे कानून होने ही नहीं चाहिए।