'कागज' रिव्यू: कमियों के बावजूद पंकज त्रिपाठी ने जीता दिल, जानिए कैसी है फिल्म
जब भी हमें कोई सरकारी काम करवाना होता है तो बिना कागज दिखाए पूरा नहीं हो सकता। हर जगह आपको अपना पहचान पत्र दिखाने की जरूरत पड़ती है। वहीं, अगर उन्हीं सरकारी कागजों पर किसी शख्स को मृत घोषित कर दिया जाए, तो सामने खड़े जीते-जागते शख्स की भी कोई अहमियत नहीं रह जाती। इसी सच को दिखाती है पंकज त्रिपाठी की फिल्म 'कागज', जो ZEE5 पर दस्तक दे चुकी है। आइए जानते हैं कैसी ये फिल्म।
ऐसे शुरू होती है कहानी
यह कहानी है 1977 में उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में रहने वाले भरत लाल (पंकज त्रिपाठी) की, जो बैंड मास्टर है। वह गांव में अपनी पत्नी रुक्मणि (मोनल गज्जर) और बच्चों के साथ रहता है। अपना काम बढ़ाने के लिए वह बैंक से लोन लेने जाता है, लेकिन बैंक लोन के बदले कुछ गिरवी रखने के लिए कहता है। ऐसे में वह अपनी एक पुश्तैनी जमीन के कागज लेने पहुंचता है।
जब भरत लाल की जिंदगी में मच जाता है तहलका
जमीन के कागज लेने पहुंचे भारत को पता चलता है कि सरकारी कागजों में उसे मृत घोषित कर उसकी जमीन उसके चाचा के बच्चों में बांट दी है। यहीं से भरत की जिंदगी में तहलका मच जाता है। अब भरत सरकारी कागजों में खुद को जीवित साबित करने के लिए तरह-तरह के हथकंड़े अपनाता है। भरत की यह लड़ाई 18 साल लंबी चली, इसके बाद वह खुद को जीवित साबित कर पाया या नहीं, इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।
पंकज त्रिपाठी की अदाकारी ने जीता दिल
इसे पंकज त्रिपाठी की खासियत ही कहेंगे कि वह किसी भी साधारण किरदार को इतना खास बना देते हैं कि दर्शक उन भावनाओं को महसूस करने लगते हैं। इस बार भी वह भरत लाल के किरदार में इतने डूबे हुए हैं कि दर्शक एक जिंदा शख्स के मरे हुए घोषित होने का दर्द समझने लगते हैं। वहीं, उनकी पत्नी का किरदार निभा रहीं मोनल गज्जर को सोने पर सुहागा कहना गलत नहीं होना। उनका काम काफी शानदार है।
अन्य कलाकार भी रहे शानदार
फिल्म के अन्य कलाकारों की बात करें तो वकील साधोराम केवट के किरदार में सतीश कौशिक बिल्कुल फिट बैठते हैं। उनके अलावा अशरफी देवी के किरदार में मीता वशिष्ट, विधायक बने अमर उपाध्याय, पत्रकार सोनी की भूमिका में नेहा चौहान और जज की भूमिका में नजर आए अभिनेता ब्रिजेंद्र काला कुछ ही देर के लिए पर्दे पर दिखे। हालांकि, सभी से स्क्रिप्ट की मांग के अनुसार उम्दा काम किया है।
निर्देशन में दिखी कुछ कमियां
सतीश कौशिक ने एक सच्ची कहानी दर्शकों के सामने पेश की है। आज भी भारत के कई इलाके ऐसे हैं जहां जीवित लोगों को कागजों पर मार दिया और वह पूरी जिंदगी खुद को जीवित साबित करने में गुजार देते हैं। कौशिक ने गंभीर मुद्दे को उठाने की कोशिश की है, लेकिन कॉमेडी के चक्कर में डायरेक्टर इसमें कुछ चूकते दिखते हैं। कई जगहों पर फिल्म खींची हुई और बोरिंग लगते लगती है। इसे थोड़ा छोटा किया जा सकता था।
शानदार है सिनेमैटोग्राफी
वैसे तो फिल्म के सभी गाने औसत हैं, लेकिन संदीपा धर पर फिल्माया गाना 'सांग-सइयां सौतनों से भरे...' मजेदार है। आने वाले समय में यह लोगों की जुबां पर भी चढ़ सकता है। वहीं, संदीपा भी इसमें बेहद खूबसूरत दिख रही हैं। फिल्म में दिखाई गई लोकेशन्स भी तारीफ के काबिल है। खेत-बाग की प्राकृतिक खूबसूरती हो या स्कूल, दफ्तर और अदालत हर जगह कैमरे का एंगल बिल्कुल सही रखा गया है, जो कहानी के मुताबिक सच्चे लगते हैं।
देखें या ना देखें?
फिल्म में 1977 की कहानी दिखाई है, लेकिन कई चीजें उस दौर से मेल नहीं खाती। जैसे लोगों का पहनावा आज जैसा है। संदीपा धर के स्टाइलिश लुक पर भी सवाल उठते हैं। फिल्म को बहुत शानदार तो नहीं कह सकते, लेकिन इसे देखकर आपको अफसोस नहीं होगा। अगर आप किसी अलग मुद्दे की फिल्म देखना चाहते हैं और पंकज त्रिपाठी के फैन हैं तो इसे देख सकते हैं। हम इसे पांच में से तीन स्टार दे रहे हैं।