
#NewsBytesExplainer: हिंदी सिनेमा में 'मां' का सफरनामा, जानिए कैसे बदली भूमिका और स्वरूप
क्या है खबर?
वैसे तो मां की ममता या अपना आभार जताने के लिए कोई दिन मुकर्रर नहीं किया जा सकता, लेकिन दुनियाभर में एक खास दिन पर मातृ दिवस मनाने की परंपरा चली आ रही है।
आज यानी 12 मई को मातृ दिवस के मौके पर हम आपको बताएंगे कि बॉलीवुड में मांओं ने कौन-कौन से अलग दौर देखे हैं।
100 साल से अधिक के भारतीय सिनेमा में मां का चित्रण कितना बदला है, पेश है इस पर एक खास रिपोर्ट।
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आजादी के आंदोलन के दौर में मां की भूमिका
जब आजादी की लड़ाई चरम पर थी, तब सामाजिक बदलाव की लडाई भी छिड़ी थी। महिलाओं के अधिकारों पर संदेश सिनेमा के जरिए भी लोगों तक पहुंचाया जा रहा था।
1936 में आई फिल्म 'अमर ज्योति' की कहानी भी ऐसी थी, जो एक ऐसी विद्रोही मां की दास्तां बया करती है, जिसे पति से अलग होने के बाद बच्चे की कस्टडी छीन ली जाती है।
ये पहला मौका था, जब मां का इतना प्रभावशाली चरित्र पर्दे पर दिखाया गया था।
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1940 से 1950 के बीच फिल्मों का मुख्य आकर्षण होती थीं 'मां'
बात चाहें 1940 में बनी फिल्म 'औरत' की हो या 1949 में आई 'दुलारी' की, इस दौर में मां को केंद्र में रखकर फिल्म की कहानियां गढ़ी जाती थीं।
सिनेमाई मां पर दुखों का पहाड़ फिल्म 'मां' के साथ शुरू हुआ। इससे पहले अन्याय के खिलाफ लड़ती दिखी मां अब बेचारी हो चुकी थी।
1952 में आई 'मां' में अपने पति को खोने के बाद महिला पागल हो जाती है और उसका अपना ही बेटा उसके साथ दुर्व्यवहार करता है।
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1960 के दशक में मां की भूमिका
अगर आपने फिल्म 'मदर इंडिया' देखी होगी तो इसकी अदाकारा नरगिस दत्त तो आपको याद ही होंगी, जिन्होंने एक ऐसी मां का किरदार निभाया, जो असहाय जरूर थीं, लेकिन न्याय के लिए न तो वह कुछ भी कर गुजरने से चूकती है और ना ही विपरीत परिस्थितियों से परहेज करती है।
ये वो समय था, जब पर्दे पर दिखने वाली मां अपने मूल्याें के प्रति सदा समर्पित रहती थीं। 'मदर इंडिया' ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामित पहली भारतीय फिल्म थी।
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1970 के दशक में गरीबी और अन्याय से जूझती दिखी मां
'मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है...तुम्हारे पास क्या है?...मेरे पास, 'मां' है...फिल्म 'दीवार' का यह मशहूर डायलॉग हमेशा अमर रहेगा।
70 और 80 के दशक में अमूमन पर्दे पर हमें ऐसी 'मां' ज्यादा दिखती थीं, जो गरीबी से लड़कर, अन्याय से जूझती, मुश्किलों को सहकर अपने बच्चों की परवरिश करती थी।
1975 में आई अमिताभ बच्चन की 'दीवार', 1977 में 'अमर अकबर एंथनी' और 1978 में 'त्रिशूल' जैसी फिल्मों में हमने ऐसी ही मां को देखा।
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...जब 'बेचारी' से 'अत्याचारी' हुई मां
सिनेमा में ये वो दौर था, जब मां की नकारात्मक छवि को पर्दे पर भुनाया जाने लगा था।
समाज के में जो धारणाएं थीं, उन्हें हकीकत बनाकर पर्दे पर परोसा जाने लगा था।
1973 में आई फिल्म 'बॉबी' को ही देख लीजिए, जिसकी शुरुआत से ही दिखाया गया है कि कैसे बच्चे के बिगड़ने के लिए अकेली मां ही जिम्मेदार होती है।
उधर सौतेली मां और बच्चों पर उसके अत्याचारों का सिलसिला भी इसी बीच शुरू हुआ था।
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परिवार को अपने इशारों पर चलाने वाली मां
अपनी हुकूमत चलाने वाली मां का कॉन्सेप्ट भी काफी समय तक सिनेमा में रहा यानी एक ऐसी मां, जिसका पूरे परिवार पर कंंट्रोल रहता है।
1980 में आई फिल्म 'खूबसूरत' इसका बढ़िया उदाहरण है। इसमें एक मां की भूमिका एक तानाशाह की थी, जिसमें उसके अपने नियम हैं, जो पूरे परिवार को मानने हैं।
जब 90 के दशक में रोमांटिक फिल्मों का जोर बढ़ा तो पर्दे पर मां की भूमिका बदल गई। वह बच्चों की दोस्त और मददगार बन गईं।
जानकारी
हिंदी सिनेमा की 'पसंदीदा' मां निरूपा रॉय
बॉलीवुड फिल्मों में जब भी मां का जिक्र आता है तो जहन में सबसे पहले करीब 200 से ज्यादा फिल्मों में मां का किरदार निभाने वाली निरूपा रॉय का नाम उभरता है। बतौर मां उनकी पहली भूमिका फिल्म 'मुनीमजी' में देव आनंद के साथ थी।
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1990 से 2000 का दशक और बिंदास मांओं का दौर
परिवार के खिलाफ जाकर बच्चों का साथ देने वाली मां का दौर 1990 और 2000 का दशक में देखने को मिला।
अब रोती-बिलखती मां की जगह बिंदास मांएं पर्दे पर नजर आने लगीं, जो अपने बच्चों से बातचीत करती हैं। उनको समझती हैं और तालमेल बैठाती हैं।
इस दौर में दुखियारी मांएं, कूल मॉम बनने लगी थीं। किरण खेर ने 'हम तुम' जैसी कई फिल्मों में एक कूल या कहें बिंदास मां का किरदार निभाया है।
जानकारी
नए दौर की मां
नए दौर की मां आत्मसम्मान और बराबरी की बात कर रही हैं। वह अपने बच्चों का समर्थन करने के साथ कदम भी उठाती हैं। सरोगेट मदर, सिंगल मदर, 50 की उम्र में गर्भवती होने वाली मां, अब मां का अलग-अलग अंदाज दिखाई देने लगा है।