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    राम जन्मभूमि विवाद: जानिये, 1528 में बाबरी मस्जिद निर्माण से लेकर 2018 तक की पूरी कहानी

    राम जन्मभूमि विवाद: जानिये, 1528 में बाबरी मस्जिद निर्माण से लेकर 2018 तक की पूरी कहानी
    लेखन मोहम्मद वाहिद
    संपादन Manoj Panchal
    Dec 06, 2018, 07:01 pm 1 मिनट में पढ़ें
    राम जन्मभूमि विवाद: जानिये, 1528 में बाबरी मस्जिद निर्माण से लेकर 2018 तक की पूरी कहानी

    "एक धक्का और दो, बाबरी तोड़ दो", 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में कार सेवकों के ये नारे हर तरफ गूंज रहे थे। सैकड़ों साल पुरानी मस्जिद पर चोट करती कुदालों की ठक-ठक आवाज़ और ऊंचे स्वरों में जय श्री राम के उद्घोष से पूरी अयोध्या गूंज उठी थी। ऐसा लग रहा था कि मानो अगली सुबह बस राम मंदिर का भव्य निर्माण हो ही जाएगा, लेकिन होनी और राजनेताओं को कुछ और ही मंज़ूर था।

    राम मंदिर आंदोलन के शुरुआत की कहानी

    राम मंदिर आंदोलन अयोध्या से 2,000 किलोमीटर दूर तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के मीनाक्षीपुरम गांव से शुरू हुआ था। इस गांव के सैकड़ों 'अछूत' माने जाने वाले हिंदुओं ने साल 1981 में इस्लाम धर्म अपना लिया था, इस घटना ने देश की राजनीति को पूरी तरह गरमा दिया। इसके बाद विश्व हिन्दू परिषद (VHP) ने 1984 में दिल्ली में एक धर्म संसद का आयोजन किया, जिसमें अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पारित हुआ।

    राम मंदिर के इतिहास पर एक नज़र

    1528: बाबर ने अयोध्या में एक मस्जिद का निर्माण कराया जिसे बाबरी मस्जिद कहते हैं, हिंदू मान्यता के अनुसार इसी जगह पर भगवान राम का जन्म हुआ था। 1853: हिंदुओं का आरोप कि भगवान राम के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ। 1859: ब्रिटिश सरकार ने तारों की एक बाड़ खड़ी करके विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिदुओं को अलग-अलग प्रार्थनाओं की इजाज़त दी। 1885: विवादित भूमि का मामला पहली बार अदालत में पहुंचा।

    राम मंदिर के इतिहास पर एक नज़र

    23 दिसंबर 1949: हिंदुओं ने मस्जिद के केंद्रीय स्थल पर भगवान राम की मूर्ति रख दी, इसके बाद वहां नियमित रूप से पूजा होने लगी। 17 दिसंबर 1959: निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल हस्तांतरित करने के लिए मुकदमा दायर किया। 18 दिसंबर 1961: उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर किया। 9 नवंबर 1989: तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने बाबरी मस्जिद के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दी।

    फिर आया 6 दिसंबर, 1992 का दिन

    25 सितंबर, 1990 को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा की। नवंबर में आडवाणी गिरफ्तार कर लिए गए और भाजपा ने वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। फिर समय आया 1992 का। 6 दिसंबर, 1992 को हज़ारो कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को मात्र 17-18 मिनटों में ढहा दिया और वहां एक अस्थाई मंदिर बनाया गया। इस घटना के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के, जिसमें लगभग 2,000 लोगों की मौत हुई।

    साल 2001 में फिर सामने आया राम मंदिर निर्माण का जिन्न

    तकरीबन 9 साल तक शांत रहने के बाद साल 2001 में राम मंदिर निर्माण के विवाद का मामला फिर सुर्खियों में आया। बाबरी विध्वंस की बरसी आयोजित होने पर हिंदू-मुस्लिम संगठन फिर आमने-सामने आ गए। विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण कराने का संकल्प लिया। बढ़ते विवाद के बीच तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने एक समिति गठित की, लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा की अध्यक्षता वाली यह समिति अपने काम को अंजाम देने में असफल रही।

    मस्जिद में नमाज पढ़ना अनिवार्य नहीं है- शीर्ष न्यायालय

    1991 में UP सरकार के द्वारा विवादित जमीन का अधिग्रहण करने के बाद इस्‍माइल फारुकी कोर्ट गए और भूमि अधिग्रहण को चुनौती दी। जिस पर शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना अनिवार्य नहीं है नमाज कहीं और भी पढ़ी जा सकती है।

    साल 2002 का गोधरा कांड, जिसने अयोध्या की आग में डाला घी

    विश्व हिंदू परिषद की घोषणा के बाद मार्च 2002 में अयोध्या में बड़ी संख्या में हिंदू जमा हुए। जहां से लौटते समय गोधरा में कारसेवकों का एक जत्था मुसलमानों के गुस्से का शिकार बना। मुसलमानों ने ट्रेन की एक बोगी को आग के हवाले कर दिया। जिसमें 58 कारसेवक जिंदा जल गए। कारसेवकों की मौत के बाद गुजरात में दंगें भड़क उठे। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी पर राजधर्म का पालन न कर पाने का आरोप लगा।

    पुरातात्विक खुदाई में मंदिर से मिलते-जुलते अवशेष मिले

    साल 2003 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मामले के लंबित होने की वजह से सुप्रीम कोर्ट तटस्थ बना रहा। इसी साल इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पुरातात्विक विभाग से विवादित स्थल की खुदाई करवाई। खुदाई में मंदिर से मिलते-जुलते अवशेष मिले। इलाहाबाद हाई कोर्ट में लंबे समय तक सुनवाई चलती रही। आखिरकार साल 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया।

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने किया था एतिहासिक फैसला

    30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटा जिसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े में जमीन बंटी। तीनों में से किसी को भी यह फैसला स्वीकार नहीं हुआ। तीनों याचिकाकर्ता देश की सर्वोच्च अदालत पहुंच गए और 9 मई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले पर रोक लगा दी।

    सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई टलने के बाद ज़ोर पकड़ने लगी है कानून की मांग

    29 अक्टूबर, 2018 को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस मामले की नियमित सुनवाई की तारीख वो जनवरी में तय करेगी। उसके बाद से राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। संत समाज भी 2019 चुनाव से पहले मंदिर निर्माण की मांग कर रहा है। सांसद और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद कहा कि अगर हिंदुओं का सब्र टूटा तो मुश्किल हो जाएगी।

    बुलंद होने लगी है राम मंदिर निर्माण की मांग

    2019 आम चुनाव से पहले राम मंदिर निर्माण मोदी सरकार के लिए चुनौती साबित हो रहा है। साधु-संत समाज और हिंदु संगठन भाजपा सरकार पर राम मंदिर के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। 24 नवंबर को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अयोध्या पहुंच कर मामले को और भी गरमा दिया है। 25 नवंबर को RSS और VHP के अयोध्या में धर्म संसद ने मंदिर के लिए कानून बनाने की मांग को और ज़ोर दे दिया है।

    अयोध्या में न मस्जिद थी और न राम मंदिर, वाकई?

    उपन्यासकार स्वर्गीय कमलेश्वर के 2000 में प्रकाशित उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' में बताया गया कि अयोध्या में न कभी बाबरी नाम की मस्जिद थी और न ही राम मंदिर। कमलेश्वर ने इस उपन्यास पर काम रामजन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के बाद किया था और 10-12 साल के अध्यन और ऐतिहासिक तथ्यों की छनबीन के बाद 'कितने पाकिस्तान' को लिखा था। उन्होंने क़िताब में बताने की कोशिश की है कि इस विवाद के पीछे अंग्रेज़ों की चाल थी।

    लेखक के विचार

    6 दिसंबर, 1992 के बाद से राम मंदिर के नाम पर मुख्य धारा की राजनीति में आने वाली भाजपा सरकार मंदिर के नाम पर वोट तो पाना चाहती है, लेकिन मंदिर नहीं बनवाना चाहती। भाजपा को देखकर अन्य पार्टियां भी धर्म बेचने में लगी हुई हैं। इन सब के बीच बड़ा सवाल यह है कि देश के लिए क्या ज़रूरी है मंदिर-मस्जिद या देश का विकास। 2019 आम चुनावों से पहले हमें यह सवाल अपने आप से ज़रूर पूछना चाहिए।

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