'सरदार उधम' रिव्यू: बिखरी हुई स्क्रिप्ट और कमजोर अभिनय, फिल्म नहीं कर पाई कमाल
विक्की कौशल अभिनीत फिल्म 'सरदार उधम' अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हो चुकी है। फिल्म क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह के बारे में है। उन्होंने ब्रिटेन में जाकर लंदन में अंग्रेज अधिकारी माइकल ओ'डायर की हत्या की थी। फिल्म को शूजित सरकार ने डायरेक्ट किया है। फिल्म में शॉन स्कॉट, स्टीफन होगन, बनिता संधु, कर्स्टी एवर्टन और अमोल पाराशर भी दिखे हैं। रॉनी लहिरी और शील कुमार ने फिल्म का निर्माण किया है। आइए जानते हैं कैसी है फिल्म।
उधम सिंह के संघर्ष के इर्दगिर्द घूमती है फिल्म
फिल्म में विक्की ने उधम सिंह का किरदार निभाया है। 1919 में जलियांवाला बाग में जनलर डायर ने बिना चेतावनी के हजारों लोगों पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया था। इसमें हजारों की तादाद में लोग मरे थे। फिल्म इसी घटना की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे उधम सिंह इस घटना के साजिशकर्ता जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ'डायर को सबक सिखाने के मिशन पर निकल जाते हैं।
विक्की नहीं कर पाए खास कमाल
उधम सिंह के किरदार में विक्की ने जान फूंकने की कोशिश की है। पूरी फिल्म उन्हीं के कंधे पर आगे बढ़ती हुई दिखी है। इसके बावजूद विक्की के दर्शकों को यह फिल्म निराश करती है। फिल्म में विक्की से जिस तरह के एक्शन और डायलॉग की उम्मीद दर्शक लगाए बैठे थे, उन्हें जरूर निराशा हुई होगी। अगर किसी को लगता है कि विक्की का अभिनय इस फिल्म को बचा लेगा, तो यह केवल कोरी कल्पना ही होगी।
कमजोर स्क्रिप्ट से बिखरी फिल्म की कहानी
विक्की जिस प्रकार के अभिनेता हैं, उस दर्जे की स्क्रिप्ट ही नहीं लिखी गई है। फिल्म की स्क्रिप्ट इतनी कमजोर है कि यह कभी दर्शकों को बांधने में कामयाब नहीं रही। फिल्म की कहानी बिखरी हुई लगती है। कभी इसकी कहानी फ्लैशबैक में जाती है, तो कभी वर्तमान से इसे जोड़ने की कोशिश की गई है। फिल्म को स्वतंत्रता आंदोलन और इसके नायकों से जोड़ने की कोशिश ही नहीं की गई है।
एक व्यक्ति की गाथा या डॉक्यूमेंट्री में सिमट गई फिल्म
ऐसा लगता है कि जैसे फिल्म एक व्यक्ति की गाथा या डॉक्यूमेंट्री हो, जबकि इसका कैनवास बहुत बड़ा था। फिल्म में लंबे समय तक हम केवल एक इंसान की यात्रा के दर्शक बने रहते हैं। निर्देशक ने फिल्म को तत्कालिक घटनाक्रम से जोड़ने की जहमत नहीं दिखाई है। फिल्म में उधम सिंह को लंदन में अजीबोगरीब नौकरियां करते हुए दिखाया गया है। फिल्म भारत के महान स्वत्रंतता आंदोलन के इतिहास को उधम सिंह से कनेक्ट करने में नाकामयाब रही है।
कैसा रहा फिल्म का निर्देशन?
निर्देशन इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष रहा है। 'पीकू' और 'गुलाबो सीताबो' जैसी फिल्में बना चुके शूजित इस बार अपना जलवा नहीं बिखेर पाए। निर्देशक को और अधिक होमवर्क और फैक्ट जुटाने की कोशिश करनी चाहिए थी। दो घंटे 42 मिनट की फिल्म भी दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ रही। फिल्म का रनटाइम बहुत लंबा और थका देने वाला है। फिल्म की एडिटिंग में खामी के कारण कई जगह फिल्म को अनावश्यक खींचा गया। इससे फिल्म बोरिंग लगती है।
अत्यधिक अंग्रेजी संवादों ने फेरा पानी
फिल्म में अंग्रेजी संवादों की अधिकता है, जिससे हिंदी दर्शकों को फिल्म से जुड़ने में परेशानी हो रही है। मेकर्स को चाहिए था कि फिल्म में कम-से-कम अंग्रेजी संवादों को रखा जाए। यहां तक कि फिल्म के लीड किरदार विक्की भी फिल्म में खूब अंग्रेजी बोलते दिखे हैं। एक जगह भगत सिंह का किरदार निभाने वाले अमोल पाराशर ने कहा, "हम सिर्फ एक्सप्लॉयटेशन के अगेंस्ट हैं। हमें सेमी-इंडिपेंडेंस नहीं चाहिए।" ऐसी जगहों पर कम अंग्रेजी हो सकती थी।
बाकी कलाकारों का कैसा रहा अभिनय?
विक्की का प्रदर्शन औसत दर्जे का रहा है। वहीं बाकी कलाकारों के अभिनय की बात करें तो भगत सिंह का किरदार निभाने वाले अमोल ने भी कोई छाप नहीं छोड़ी है। हालांकि, उन्हें फिल्म में स्क्रीन टाइम भी कम दिया गया है। जनरल डायर के किरदार में शॉन स्कॉट और विक्की के वकील की भूमिका में दिखे स्टीफन होगन ने अच्छी एक्टिंग की है। शॉन स्कॉट ने जनरल डायर की ऐसी एक्टिंग की है कि आप उनसे नफरत करने लगेंगे।
फिल्म देखें या नहीं?
यदि आप देशभक्ति पर आधारित फिल्म की उम्मीद कर रहे हैं, तो आपको निराशा हाथ लगेगी। इस फिल्म को देखकर कभी भी आपमें देशभक्ति की भावना नहीं जन्म लेगी। इससे अच्छा है कि समय बर्बाद न करें। उन्हें यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए, जो ब्रिटिश शासन की दासता और उधम सिंह के संघर्ष को देखना चाहते हैं। जलियांवाला बाग हत्याकांड को भी अंत में अच्छी तरह से फिल्माया गया है। हमारी तरफ से फिल्म को एक स्टार।