#NewsBytesExplainer: छोटे शहरों का रुख कर रहा बॉलीवुड, जानें यहां कैसे होती है शूटिंग
बॉलीवुड में इन दिनों छोटे शहरों की कहानियां छाई हुई हैं। दर्शकों से जुड़ने के लिए निर्माता मुंबई, दुबई जैसे शहरों की चकाचौंध को छोड़कर छोटे शहरों का रुख कर रहे हैं। ऐसे में लखनऊ, बनारस, भोपाल, इंदौर जैसे शहर पर्दे पर खूब दिखाई दे रहे हैं। छोटे शहरों में बड़े सितारों के साथ शूटिंग करना कितना आसान है? आइए, आज समझते हैं कि छोटे शहरों में फिल्मों की शूटिंग कैसे होती है।
लोकेशन के लिए होती है रेकी
सबसे पहले स्क्रिप्ट के हिसाब से किसी लोकेशन को तय करना होता है। इसके लिए पहले निर्माता की टीम अलग-अलग जगहों पर विचार करती है, उनका मुआयना करती है और फिर कुछ जगहों के नाम निर्देशक और निर्माता को सौंपती है। इसके बाद निर्देशक और निर्माता इन जगहों का दौरा करते हैं। शूटिंग के लिहाज से उन्हें जो जगह पसंद आती है, निर्माता और निर्देशक की आपसी सहमति से किसी एक जगह को फाइनल कर देते हैं।
प्रशासन से लेनी होती है इजाजत
शूटिंग से पहले प्रशासन से इसकी इजाजत लेनी पड़ती है। नगरपालिका, RTO, पुलिस जैसे विभागों से अनुमति लेने के बाद ही कहीं फिल्म का सेट लगाया जा सकता है। निर्माता अकसर एक स्थानीय टीम के संपर्क में रहते हैं, जो उनके लिए सारी औपचारिकताएं पूरी करवाते हैं। इनके अलावा लोकल कलाकार और वेंडर्स से भी उन्हें जोड़ते हैं। लोकल टीम के होने से फिल्म की टीम को क्षेत्र विशेष से संबंधित परेशानियों से नहीं जूझना पड़ता।
शूटिंग के पहले ग्राउंड प्लानिंग
शूटिंग के लिए फिल्म का सेट लगाने से पहले निर्देशक की टीम ग्राउंड प्लानिंग करती है। इसमें शूटिंग के लिए जरूरी सभी सामानों की सूची बनाकर उन्हें उपलब्ध कराना होता है। इसमें वैनिटी वैन से लेकर जनरेटर तक का इंतजाम शामिल होता है। जानकारों के मुताबिक, कई बार 2 मिनट के एक दृश्य की शूटिंग में कई बार 10 दिन भी लग जाते हैं। इसके अलावा शूटिंग शुरू करने से पहले जो तैयारियां करनी होती हैं, वो अलग।
स्थानीय वेंडर की मदद लेती है आर्ट टीम
जरूरी सामानों की आपूर्ति के लिए निर्माताओं की टीम स्थानीय वेंडर से संपर्क करते हैं। शूटिंग में इस्तेमाल होने वाले प्रॉप की जिम्मेदारी आर्ट डिपार्टमेंट की होती है। सबकुछ किराए पर मंगवाया जाता है। जो वेंडर के पास भी उपलब्ध नहीं होता, उसे निर्माता खरीदते हैं। इनके अलावा दृश्यों में बैकग्राउंड में नजर आने वाले लोग अकसर स्थानीय लोग ही होते हैं, जिनको बुलाने और तैयार करने का काम स्थानीय टीम का होता है।
केटरर को दी जाती है खाने की जिम्मेदारी
अब इतने दिन तक की शूटिंग चलती है तो सितारों से लेकर जूनियर आर्टिस्ट और तकनीकी सहायकों के खाने-पीने का इंतजाम कैसे होता है? इसके लिए स्थानीय केटरर से संपर्क किया जाता है। अमूमन एक लोकेशन पर फिल्म की टीम के लिए 6-7 केटरर काम करते हैं। इनका काम सितारों से लेकर फिल्म के सभी सदस्यों के लिए खाना मुहैया कराना होता है। लोकेशन की साफ-सफाई की जिम्मेदारी भी निर्माताओं की टीम की ही होती है।
गाड़ियों का ऐसे होता है इंतजाम
कई बार दृश्यों में गाड़ियों का भी इस्तेमाल होता है। अपनी फिल्म में निर्देशक कौन-सी गाड़ी दिखाना चाहते हैं, वह इसकी सूची अपने सहायक को दे देते हैं। सहायक निर्देशक स्थानीय टीम से इन गाड़ियों के लिए संपर्क करता है। स्थानीय टीम सभी जरूरी कागजों के साथ इन गाड़ियों को मुहैया कराती है। सहायक निर्देशक इसके लिए कई वेंडर से बातचीत करते हैं और जिनके पास उनकी जरूरत के हिसाब से गाड़ियां हों, उनको यह जिम्मेदारी सौंप देते हैं।
सुरक्षा के लिए होते हैं ये इंतजाम
किसी भी तरह की आपात स्थिति से बचने के लिए सेट पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाते हैं। इसके लिए सेट पर सुरक्षाकर्मियों के साथ ही फायरमैन और डॉक्टर की व्यवस्था होती है। दृश्य के खतरे के हिसाब से कई बार एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड को भी उपलब्ध कराया जाता है। शूटिंग के लिए कुछ गाइडलाइन होती हैं, जिनका सख्ती से पालन किया जाता है ताकि किसी अनहोनी से बचा जा सके।
इन फिल्मों में दिखे टीयर-2 शहर
हाल ही में आई फिल्म 'जरा हटके जरा बचके' इंदौर की पृष्ठभूमि पर आधारित है। 'स्त्री', 'सुई धागा' जैसी फिल्में मध्यप्रदेश के चंदेरी में फिल्माई गई थीं। इनके अलावा बनारस निर्माताओं के पसंदीदा शहरों में से एक बन चुका है। यहां के गंगा घाट 'ब्रह्मास्त्र', 'भोला', जैसी हालिया फिल्मों में नजर आए। लखनऊ, कानपुर, भोपाल, इलाहाबाद जैसे शहर भी कई फिल्मों का हिस्सा बन चुके हैं। कई बड़ी फिल्मों के कुछ गाने इन छोटे शहरों में फिल्माए जाते हैं।