'फर्रे' रिव्यू: कैमरे के लिए तैयार दिखीं अलीजे अग्निहोत्री, लेकिन कहानी में दम नहीं
स्कूल ड्रामा फिल्म 'फर्रे' 24 नवंबर को सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। फिल्म में कई नए चेहरे नजर आए हैं। इस फिल्म से सलमान खान की भांजी अलिजे अग्निहोत्री ने बॉलीवुड में कदम रखा है। इस वजह से यह फिल्म काफी समय से चर्चा में थी। फिल्म से प्रसन्ना बिष्ट और जेन शॉ ने भी अपने बॉलीवुड सफर की शुरुआत की है। सलमान की सलमान खान फिल्म्स इस फिल्म की सह-निर्माता है। आइए जानते हैं कैसी है 'फर्रे'।
नकल के धंधे पर आधारित है 'फर्रे'
फिल्म की मुख्य किरदार नियती (अलीजे) है, जो एक अनाथालय में पली-बढ़ी है। वह पढ़ाई में काफी होशियार है और दिल्ली की टॉपर है। टॉपर होने की वजह से उसे 12वीं के लिए दिल्ली के सबसे महंगे स्कूल में दाखिला मिलता है। अनाथालय की आर्थिक मदद के लिए नियती इस स्कूल में अमीरों के बच्चों को परीक्षा में नकल कराती है और उनसे मोटा पैसा लेती है। पैसों के लालच में वह सही-गलत के चक्रव्यूह में फंस जाती है।
डेब्यू के लिए अलीजे की तैयारी आई नजर
फिल्म शुरू से ही अलीजे के कारण चर्चा में थी। ऐसे में हर किसी की नजरें उनके अभिनय पर थीं। अलीजे ने भी दर्शकों और समीक्षकों को निराश नहीं किया है। हालांकि, कुछ भावुक दृश्यों में जरूर वह कमजोर पड़ती हैं। साहिल मेहता (आकाश) भी पर्दे पर अनुभवी लगते हैं। वह इससे पहले 'रक्षाबंधन', 'गुडलक जेरी' जैसी फिल्मों में नजर आ चुके हैं। डेब्यू कलाकार प्रसन्ना बिष्ट और जेन शॉ ने भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।
गंभीरता से चूके निर्देशक
निर्देशक सौमेंद्र पाढी इस क्राइम थ्रिलर फिल्म को रोमांचक बनाने में असफल रहे। फिल्म कुछ किशोर बच्चों के नकल के धंधे में फंस जाने पर आधारित है, लेकिन कहीं भी इस विषय की गंभीरता नजर नहीं आई। उन्हें कई बार इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं, लेकिन कहानी बिना किसी रोमांच या भावनाओं के ऐसे मोड़ से आगे निकल जाती है। फिल्म आखिर तक सही-गलत के बीच झूलती रहती है और आखिर में अचानक सही का रास्ता चुन लेती है।
इन तत्वों की 'फर्रे' बनकर रह गई फिल्म
फिल्म अनाथाश्रम में पलने वालीं लड़कियों की जिंदगी से शुरू होती है। इसके संचालक इस आश्रम को चलाने के लिए आर्थिक संघर्ष कर रहे हैं। निर्देशक फिल्म में अमीर-गरीब के सामाजिक अंतर को दिखाने की मंशा रखते हैं, लेकिन यह भावना विकसित नहीं पर पाते हैं। फिल्म में कई सारे सामाजिक संदेश देने की कोशिश की जाती है, जो आपस में उलझ कर रह गए हैं। बिना किसी रोमांच के फिल्म की कहानी सपाट रूप से आगे बढ़ती है।
हर कसौटी पर साधारण है फिल्म
फिल्म में 3 गाने हैं, जो इसकी ढीली-ढाली कहानी को मनोरंजक बनाने में योगदान देते हैं। कैमरे का खेल भी बेहद साधारण है, जो रोमांच बनाने में कामयाब नहीं हो सका। फिल्म में दोस्ती और दोस्तों में ही नकल के लिए पैसों के लेनदेन को दिखाया गया है। ऐसे में ये बच्चे कभी दोस्त बने नजर आते हैं, तो कभी उनके बीच ही धोखेबाजी नजर आती है। दर्शक यह समझते रह जाते हैं कि फिल्म आखिर बताना क्या चाहती है।
देखें या न देखें?
क्यों देखें?- हल्के-फुल्के मनोरंजन के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है। किशोरों और युवाओं को यह फिल्म मनोरंजक लगेगी। क्यों न देखें?- फिल्म बिना किसी रोमांच के नकल करने के उटपटांग तरीकों को दिखाती जाती है। 2 बच्चे पूरी शिक्षा व्यवस्था को चकमा देकर नकल करने ऑस्ट्रेलिया पहुंच जाते हैं। आखिर तक यह फिल्म बिना सिर-पैर की हो जाती है। न्यूजबाइट्स स्टार- 2/5