#NewsBytesExplainer: बिमल रॉय, जिन्होंने 'दो बीघा जमीन' देकर बदल दी बॉलीवुड की दिशा और दशा
बिमल रॉय भारत के उन निर्देशकों में शुमार थे, जिन्होंने भारतीय सिनेमा में फिल्में बनाने की प्रक्रिया बदलकर रख दी और 'दो बीघा जमीन' जैसी कालजयी फिल्म देकर भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मिसाल कायम कर दी। उनकी फिल्मों ने दुनियाभर में तहलका मचाया। वह एक ऐसे फिल्मकार रहे हैं, जिनके प्रयोग देखकर आज भी निर्माता प्रेरणा लेते हैं। 12 जुलाई यानी रॉय की जयंती के मौके पर आइए उनकी अनोखी फिल्मावली के बारे में विस्तार से जानते हैं।
जमींदार के बेटे थे रॉय
सबसे पहले बता दें कि रॉय एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनका जन्म 12 जुलाई, 1909 में ढाका के सुआपुर गांव में एक बंगाली परिवार में हुआ था। पिता की आकस्मिक मौत हो जाने के कारण उनके घर में काफी परेशानी हुई और फिर उन्हें जमींदारी से बेदखल कर दिया गया। पढ़ाई करने के बाद फिल्मों में रुझान होने के चलते रॉय ने कोलकाता का रुख किया और बस वहीं से उनका फिल्मी सफर शुरू हो गया।
कैमरामैन से निर्देशक बने रॉय
कोलकाता में वह न्यू थिएटर्स स्टूडियो में कैमरा असिस्टेंट बन गए। उस समय उनकी उम्र 26 साल थी। 1935 में फिल्म 'देवदास' में उन्होंने निर्देशक पीसी बरुआ के सहायक कैमरामैन के तौर पर काम किया। सिनेमैटोग्राफर से निर्देशक बनने का सफर पूरा करने के लिए उन्हें 9 साल लगे। 1944 में रॉय ने अपनी पहली फिल्म 'उदयेर पथे' का निर्देशन किया, जो कामयाब रही। 1 साल बाद साल 'न्यू थिएटर्स' ने इसी फिल्म को हिंदी में 'हमराही' नाम से बनाया।
अपने सिनेमा के जरिए दिखाए मानवीय सरोकारों से जुड़े मुद्दे
जब भारतीय सिनेमा में धार्मिक और ऐतिहासिक विषयों पर फिल्में बनाने का बोलबाला था, उस दौर में रॉय ने सामाजिक और उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाने की हिम्मत की। उन्होंने अपनी फिल्मों में किसान, मध्यवर्ग और महिलाओं के मुद्दों को इतनी खूबसूरती से उठाया कि चारों ओर उनकी वाहवाही होने लगी। अपने समय के ज्वलंत सवालों ओर मुद्दों से रॉय ने कभी दिल नहीं चुराया। प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों पर भी उन्होंने एक से बढ़कर एक फिल्में पेश कीं।
'दो बीघा जमीन' ने कर दिया अमर
यही वो पहली फिल्म थी, जिसके जरिए 'बिमल रॉय प्रोडक्शन' की शुरुआत हुई। संगीतकार सलिल चौधरी को रॉय ने इस फिल्म के जरिए हिंदी सिनेमा में पहला ब्रेक दिया। सलिल ने इस फिल्म की कहानी भी लिखी थी और बलराज साहनी को मुख्य भूमिका के लिए रॉय से मिलवाया था। यह बिमल दा की तीसरी फिल्म थी। किसान और उसके संघर्ष पर बनी इस जबरदस्त फिल्म को दुनियाभर में सराहा गया। फिल्म ऐसी थी, जिसे पूरी दुनिया देखती रह गई।
दूसरी बार भारतीय सिनेमा की इसी फिल्म को मिला कान्स में सम्मान
यह फिल्म देखने के बाद राज कपूर ने कहा था, "मैं इस फिल्म को क्यों नहीं बना सका? अगले 1,000 साल बाद भी भारत की 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची बनी तो ये फिल्म उसमें शामिल जरूर होगी।" रॉय को 1954 में कान्स फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार से नवाजा गया। 'नीचा नगर' के बाद यह दूसरी हिंदी फिल्म थी, जिसे कान्स में सम्मानित किया गया था। इसे 11 फिल्मफेयर और 2 राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया।
फिल्म ने बदला हिंदी सिनेमा का रुख
न सिर्फ भारतीय सिनेमा, बल्कि विश्व सिनेमा में भी रॉय का प्रभाव दूरगामी था। उनकी 'दो बीघा जमीन' कला और व्यावसायिक सिनेमा की सफलता वाली पहली भारतीय फिल्म थी। यह आज भी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। यही वो फिल्म है, जिसके जरिए हिंदी सिनेमा में एक नई धारा का उदय हुआ। उनकी इस फिल्म ने दर्शकों को मनोरंजन के साथ सार्थकता दी। सामाजिक चेतना के मुताबिक फिल्में बनाने वाले रॉय की इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा का रुख बदल दिया।
नारी प्रधान फिल्में बनाकर निर्देशकों को दिखाई नई राह
फिल्मी दुनिया में जब उस वक्त केवल पुरुष प्रधान फिल्मों का बोलबाला था, उस दौर में रॉय ने नारीप्रधान फिल्में बनाकर निर्देशकों को एक नई राह दिखाई। 'बंदिनी' में उन्होंने एक ऐसी औरत की कहानी दिखाई, जो अपने अच्छे भविष्य को छोड़ बीमार प्रेमी की देखभाल करना ज्यादा पसंद करती है, वहीं 'सुजाता' के जरिए उन्होंने जातिगत भेदभाव पर कटाक्ष किया। उनकी महिला केंद्रित फिल्म 'मधुमति' को 9 फिल्मफेयर पुरस्कार मिले और यह रिकॉर्ड 37 साल तक कायम रहा।
पुनर्जन्म पर बनी मधुमति पहली बड़ी सफल फिल्म
1995 में आई काजोल और शाहरुख खान की 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' ने 10 फिल्मफेयर जीतकर 'मधुमति' का रिकॉर्ड तोड़ा था। पुनर्जन्म विषय पर बनी 'मधुमति' हिंदी सिनेमा की पहली बड़ी सफल फिल्म थी। इसमें दिलीप कुमार, प्राण और वैजयंतीमाला ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं।
सामाजिक मुद्दों को चोट करतीं इन फिल्मों से भी कमाया खूब नाम
भारत की आजादी के एक दशक बाद ही 1960 में रॉय ने फिल्म 'परख' का निर्देशन किया। उनकी पिछली फिल्में जितनी गंभीर थीं, यह फिल्म उतनी ही हल्की-फुल्की। 1954 में वह 'नौकरी' नाम की एक फिल्म लेकर आए, जो उस दौर की बड़ी जरूरत थी और उनकी फिल्मावली में सबसे अलग थी। रॉय ने बेहद मजेदार तरीके से इतनी जरूरी कहानी दिखाई। इस फिल्म में नौकरी की जरूरत को बहुत ही अच्छी तरह दिखाया गया है।
बिमल रॉय मेमोरियल ट्रॉफी
बिमल रॉय एंड फिल्म सोसायटी हर साल बिमल रॉय मेमोरियल ट्रॉफी प्रदान करती है और यह सिलसिला 1997 से चला आ रहा है। यह पुरस्कार उन प्रतिभावान कलाकारों और नए और युवा फिल्मकारों को दिया जाता है, जिनका भारतीय सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान रहा हो।
महज 56 की उम्र में अलविदा कह गए बिमल दा
रॉय का सिनेमा, 'बिमल रॉय स्कूल' के तौर पर जाना जाता है, जिनसे कई पीढ़ियां प्रशिक्षित होती रहेंगी। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मधुबाला को उनके साथ काम न कर पाने का बड़ा अफसोस था। रॉय ने महज 56 की उम्र में 8 जनवरी, 1966 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका निधन कैंसर के कारण हुआ था। रॉय हिंदी सिनेमा के ऐसे नक्षत्र हैं, जिनकी चमक कभी खत्म नहीं होगी।