#NewsBytesExplainer: खेल पर आधारित फिल्मों की कैसे होती है शूटिंग, कौन होता है स्पोर्ट्स कोरियोग्राफर?
अपने देश में खेल और बॉलीवुड के सबसे ज्यादा प्रशंसक हैं। ऐसे में जब ये दोनों क्षेत्र एक हो जाएं, तो रोमांच भी दोगुना होना तय है। यही वजह है कि बीते कुछ सालों में खेल पर आधारित खूब फिल्में बनी हैं। खेल पर आधारित फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता के साथ फिल्म निर्माण में एक नया विभाग जुड़ गया है, स्पोर्ट्स कोरियाग्राफी का। आइए, समझते हैं फिल्मों में खेल को फिल्माने के लिए किन बातों का ध्यान रखा जाता है।
कौन होता है स्पोर्ट्स कोरियोग्राफर या स्पोर्ट्स डायरेक्टर?
ऐसी फिल्मों के निर्माण में सबसे अहम भूमिका स्पोर्ट्स कोरियोग्राफर की होती है। इन्हें स्पोर्ट्स डायरेक्टर भी कहा जाता है। जिस तरह एक्शन डायरेक्टर फिल्मों में एक्शन सीक्वेंस तैयार करते हैं, आर्ट डायरेक्टर फिल्मों का सेट तैयार करते हैं, उसी तरह स्पोर्ट्स डायरेक्टर खेल के दृश्यों को तैयार करते हैं। शुरुआत से लेकर फिल्म तैयार होने तक, उन्हें हर बारीकी का ध्यान रखना होता है। यह स्पोर्ट्स डायरेक्टर की जिम्मेदारी है कि फिल्म में खेल ज्यादा से ज्यादा असली लगे।
बारीकी से दृश्य गढ़ते हैं स्पोर्ट्स कोरियोग्राफर
स्क्रिप्टिंग के स्तर से ही स्पोर्ट्स डायरेक्टर का काम शुरू हो जाता है। जब उनके पास स्क्रिप्ट आती है तो उसमें खेल के दृश्य के बारे में उल्लेख मात्र होता है। इसके बाद स्पोर्ट्स कोरियोग्राफर को खेल का पूरा दृश्य बारीकी के साथ लिखना होता है। जैसे स्क्रिप्ट में अगर रोमांचक खेल, भावुक खेल या निराशाजनक खेल आदि का जिक्र है, तो कोरियोग्राफर को इसके अनुसार इस दृश्य को विस्तार से लिखना होता है।
कैमरा और तकनीक का रखा जाता है विशेष ध्यान
चूंकि फिल्म में खेल को असलियत के ज्यादा से ज्यादा करीब दिखाना होता है, इसके लिए फिल्म की शूटिंग में इस्तेमाल होने वाली तकनीक का खास ध्यान रखा जाता है। कई बार खेल की शूटिंग टीवी पर मैच के प्रसारण के लिए इस्तेमाल होने वाले कैमरे से की जाती है, तो कई बार फिल्मों में इस्तेमाल होने वाले आधुनिक कैमरों की मदद ली जाती है। शॉट्स भी अलग-अलग तरीके से गढ़े जाते हैं।
तकनीक के पहलुओं की वजह से अलग लगती हैं ये फिल्में
उदाहरण के लिए रणवीर सिंह की '83' और सैयामी खेर की 'घूमर' दोनों ही क्रिकेट पर आधारित फिल्में हैं, लेकिन पर्दे पर देखने में दोनों बिल्कुल अलग लगती हैं। इसकी वजह ये है कि दोनों के शॉट्स बिल्कुल अलग तरह से लिखे गए हैं। रणवीर की फिल्म में 4 दशक पहले का खेल दिखाना था, जबकि सैयामी का खेल आज के दौर का है। ऐसे में दोनों फिल्मों के कैमरा, कैमरा ऐंगल और उनकी गति में बड़ा अंतर दिखता है।
कलाकारों को करनी होती है ये तैयारी
खेल आधारित फिल्मों के लिए अक्सर कलाकार कड़ा प्रशिक्षण लेते हैं। यह प्रशिक्षण उन्हें खिलाड़ी बनाने के लिए नहीं, बल्कि खिलाड़ी का अभिनय करने के लिए दिया जाता है। कलाकार को असली चौके-छक्के या गोल नहीं मारने हैं, बल्कि कैमरे पर इसे कैसे प्रस्तुत करना है, यह सीखना होता है। किधर कैमरा होने पर शरीर किधर घुमाना है या काल्पनिक गेंद के साथ शॉट कैसे देना है, कलाकार को इन बातों का अभ्यास करना होता है।
खेल का प्रशिक्षण
अभिनय के साथ न्याय करने के लिए कलाकारों को खेल की बुनियादी समझ जरूरी होती है। इसके नियम-कायदे भी समझने होते हैं। ऐसे में उन्हें खेल की विस्तृत जानकारी के लिए उस खेल के विशेषज्ञ द्वारा प्रशिक्षित किया जाता है। जैसे 'मैरी कॉम' के लिए प्रियंका चोपड़ा ने मुक्केबाजी, दंगल के लिए सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान ने कुश्ती सीखी थी। अगर फिल्म किसी खिलाड़ी की बायोपिक है, तो कलाकार उस खिलाड़ी के साथ भी समय बिताते हैं।
क्या असल स्टेडियम में होती है शूटिंग?
यह निर्देशक पर निर्भर करता है कि वे अपनी फिल्म की शूटिंग असल स्टेडियम में करना चाहते हैं या फिल्म का सेट तैयार करके। फिल्म का सेट तैयार करने पर खेल के दृश्य को ग्रीन स्क्रीन पर फिल्माया जाता है और बाद में VFX के माध्यम से उसमें स्टेडियम दिखाया जाता है। ग्रीन स्क्रीन पर शूटिंग में कोरियोग्राफर की चुनौती बढ़ जाती है, क्योंकि उसे VFX द्वारा तैयार किए गए स्टेडियम के हिसाब से खिलाड़ियों का स्थान दिखाना होता है।
बॉडी डबल का भी होता है इस्तेमाल
फिल्मों में कलाकारों की जगह उनके बॉडी डबल का इस्तेमाल बेहद आम है। आमतौर पर फिल्मों में स्टंट करने के लिए स्टंटमैन या बॉडी डबल का इस्तेमाल होता है। इसी तरह खेल आधारित फिल्मों में भी कलाकारों के लिए बॉडी डबल का इस्तेमाल होता है। अगर कलाकार को किसी शॉट में दिक्कत होती है, तो उसके लिए एक प्रशिक्षित खिलाड़ी को बुलाया जाता है। यह जिम्मा भी स्पोर्ट्स कोरियोग्राफर का होता है।