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    कभी मैला ढोने के दौरान मिलते थे ताने, अब मिलेगा पद्मश्री
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    कभी मैला ढोने के दौरान मिलते थे ताने, अब मिलेगा पद्मश्री

    लेखन प्रमोद कुमार
    February 03, 2020 | 07:15 pm 1 मिनट में पढ़ें
    कभी मैला ढोने के दौरान मिलते थे ताने, अब मिलेगा पद्मश्री

    7 साल की उम्र में मैला ढोना शुरू किया, 10 साल की उम्र में शादी। मायके से ससुराल आईं, लेकिन यहां भी वही काम। मायके में मां के साथ मैला ढोया तो ससुराल में सास के साथ। जब बदलाव की शुरुआत हुई तो हालात भी बदले और समाज का नजरिया भी। आज हम आपको मिलाने जा रहे हैं पद्मश्री से सम्मानित होने जा रहीं अलवर की रहने वाली 42 वर्षीया ऊषा चौमर से।

    ऊषा चौमर ने न्यूजबाइट्स से की खास बातचीत

    सामाजिक कार्यों के लिए पद्मश्री से सम्मानित होने की खबर आने के बाद न्यूजबाइट्स ने ऊषा चौमर से खास बातचीत की। इस बातचीत में उन्होंने शुरुआत से लेकर पद्मश्री मिलने तक के अपने सफर के बारे में विस्तार से बताया।

    मैला ढोने के मिलते थे 200-300 रुपये

    शादी के बाद उनका सिर्फ घर बदला था, काम नहीं। इस काम के लिए उन्हें महीने में 200-300 रुपये ही मिलते थे। उन्होंने आगे बताया, "हमसे कोई इज्जत से बात नहीं करता था। हमें मजबूरी में घिनौना और गंदा काम करना पड़ता था।" ऊषा ने कहा, "मेरी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आने वाला था। फिर मेरी किस्मत बदली और मुझे डॉक्टर बिंदेश्वर पाठक (सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक) मिले।"

    कौन हैं बिंदेश्वर पाठक?

    बिहार में जन्मे डॉक्टर बिंदेश्वर पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की थी। यह गैर-सरकारी संगठन शहरों और गांवों में सार्वजनिक शौचालय बनवाता है। बिंदेश्वर पाठक 1968 में भंगी मुक्ति कार्यक्रम से जुड़े। इसी दौरान उन्होंने मैला ढोने वाले लोगों को करीब से जाना और उनकी पीड़ा को समझा। इसके बाद उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की शुरुआत की। उनके काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है और उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।

    जब ऊषा की बात सुनकर रोने लगे पाठक

    पाठक से मिलने पर ऊषा ने उनको बताया कि उनके पास कोई काम नहीं हैं। पीढ़ियों से उनका परिवार यही काम करते आया है। काम के लिए लोग उन्हें बचा हुआ खाना खाने के लिए देते थे। इस बात पर पाठक रोने लगे थे।

    "दिल्ली जाना अमेरिका जाने जैसा लगा"

    डॉक्टर पाठक के ऊषा को अच्छा काम देने की बात कही, लेकिन उन्हें भरोसा नहीं हुआ। ऊषा ने बताया, "हमने डॉक्टर पाठक से कहा कि यहां भेदभाव बहुत है। अगर हम कुछ सामान बनाएंगे या बेचेंगे तो लोग खरीदेंगे नहीं।" उन्होंने आगे कहा, "सर (पाठक) ने हमें दिल्ली बुलाया तो हमें लगा कि हम अमेरिका जा रहे हैं। पहली बार ऐसा था जब हम कहीं बाहर जा रहे थे।"

    दिल्ली जाने की बात पर घर वालों की क्या प्रतिक्रिया रही?

    ऊषा आगे बताती हैं, "जब मैंने सास से दिल्ली जाने के बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि दिल्ली जाने की जरूरत नहीं है।" लेकिन ऊषा के पति ने उनकी सास को मना लिया और 2003 में ऊषा अन्य महिलाओं के साथ पहली बार दिल्ली आईं। ऊषा ने बताया, "जब हम दिल्ली पहुंचे तो हमारा फूल मालाओं से हमारा स्वागत किया गया। मेरी शादी में मेरे पति ने भी मुझे माला नहीं पहनाई थी।"

    दिल्ली में मनाया काम छोड़ने का मन, वापिस जाने पर सुनने पड़े ताने

    ऊषा ने बताया, "हम दिल्ली में नहा-धोकर रहते थे। हमें ताजा खाना दिया जाता था। तब मन बना लिया था काम (मैला ढोना) छोड़ना है।" जब वो दिल्ली से लौटकर वापस गईं तो उन्हें ताने सुनने को मिले। उन्होंने बताया, "दिल्ली से जाने पर मेरी सास ने मुझे काम पर जाने को कहा। उन्होंने कहा कि जब संस्था खुलेगी तब की तब देखेंगे। फिलहाल परिवार को पालने के लिए यही काम करना पड़ेगा।"

    'नई दिशा' से मिली नई पहचान

    2003 में सुलभ इंटरनेशनल ने अलवर में 'नई दिशा' नाम से संस्था शुरू की। इसमें आचार, पापड़, जूट बैग, कॉटन की बत्ती बनाई जाती थी और महिलाओं को पार्लर और सिलाई आदि का काम सिखाया जाता था। ऊषा इसी संस्था से जुड़ीं। उन्होंने बताया, "संस्था से बना हमारा सामान सुलभ खरीदने लगा था। उसके बाद दूसरे लोगों ने सामान खरीदना शुरू किया। अब वो लोग भी हमारा बनाया खरीदते और खाते हैं, जिनके घरों का हम मैला साफ करते थे।"

    इस दौरान क्या चुनौतियां आपके सामने आईं?

    संस्था से जुड़ने के बाद की चुनौतियों की बात करते हुए उन्होंने बताया, "2003 में जब मैंने काम छोड़ा तो दूसरी महिला ने काम शुरू कर दिया। उसने छोड़ा तो किसी तीसरी महिला आ गई। इसके बाद सुलभ इंटरनेशनल ने यहां के घरों में शौचालय बनवाना शुरू कर दिया। इससे मैला ढोने का काम बंद हुआ।" ऊषा ने बताया, "जब हमने संस्था में काम करना शुरू किया तो हमारी इज्जत होने लगी। लोग हमें अपने घर बुलाने लगे।"

    ..जब पहली बार अंदर से देखा मंदिर

    ऊषा ने हमें बताया कि अलवर में एक बड़ा मंदिर है। पहले यहां पंडित छुआछूत को मानते थे। वो कभी अंदर जाकर मंदिर नहीं देख पाई थी। इसके बाद डॉक्टर पाठक ने इन लोगों से बात की और उन्होंने पहली बार अंदर से मंदिर देखा।

    दूसरी महिलाओं को साथ आने के लिए कैसे मनाया?

    हमने ऊषा से पूछा कि उन्होंने अपने साथ जुड़ने के लिए दूसरी महिलाओं को कैसे मनाया? इसके जवाब में उन्होंने कहा, "पहले महिलाओं को भरोसा नहीं हुआ था। बाद में जब हम लोग नहा-धोकर बाहर निकलने लगे, हमारे बच्चे स्कूलों में जाने लगे तो औरतें मेरे पास आई और जुड़ने की इच्छा जाहिर की। मैला ढोने से महिलाओं को 150 रुपये मिलते थे, जबकि सुलभ हमें 1,500 रुपये दे रहा था, जो हमारे लिए 15 लाख रुपये के बराबर थे।"

    पद्मश्री की नहीं थी उम्मीद, डॉक्टर पाठक को समर्पित किया सम्मान

    25 जनवरी को दिल्ली से फोन पर किसी ने ऊषा को बताया कि सरकार उनको कोई सम्मान दे रही है। हालांकि, उनको इस सम्मान के बारे में जानकारी नहीं थी। ऊषा ने आगे कहा, "मैंने कभी सपने में नहीं सोचा था कि मुझे कोई सम्मान मिलेगा।" ऊषा ने यह सम्मान डॉक्टर पाठक को समर्पित करते हुए कहा असल में यह उनका सम्मान है। उनके बिना यह संभव नहीं था।

    प्रधानमंत्री मोदी को राखी बांध चुकी हैं ऊषा

    ऊषा ने हमें बताया कि वो कई बार प्रधानमंत्री मोदी से मिल चुकी हैं। उन्होंने मोदी को राखी भी बांधी है। उन्होंने बताया, "मैं इस जन्म में दो जीवन जी चुकी हूं। एक संस्था से जुड़ने से पहले और उसके बाद।"

    ऊषा का आपके नाम संदेश

    न्यूजबाइट्स के पाठकों के लिए संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि पढ़ाई-लिखाई से बहुत चीजें बदलती हैं। उन्होंने कहा, "मैं खासतौर से लड़कियों से कहना चाहूंगी कि अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करें। कम उम्र में शादी नहीं करनी चाहिए। जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं जाओ तब तक शादी मत करो।" ऊषा चौमर को मिलने वाला पद्मश्री भारत का चौथा सर्वोच्च सम्मान है। यह सम्मान उन लोगों को मिलता है जो किसी क्षेत्र में विशिष्ट सेवा से नाम कमाते हैं।

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