'UT 69' रिव्यू: राज कुंद्रा के जेल के दिनों का दस्तावेज है फिल्म
क्या है खबर?
मशहूर हस्तियों के कानूनी विवाद मीडिया में खूब सुर्खियां बटोरते हैं। इन पर चलने वाले मुकदमों और उनकी सुनवाई पर देश भर की निगाहें होती हैं।
शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा का पोर्नोग्राफी मामला ऐसा ही एक हाई प्रोफाइल मामला है।
मामले में जमानत मिलने से पहले उन्होंने 63 दिन अर्थर रोड जेल में बिताए थे। अब उन दिनों पर 'UT 69' फिल्म बनाई गई है, जो 3 नवंबर को सिनेमाघरों में रिलीज हुई है।
जानिए, कैसी है फिल्म।
कहानी
जेल में दाखिल होने से जमानत तक की है कहानी
ट्रेलर से अनुमान था कि यह फिल्म मामले में कुंद्रा की छवि सुधारने की कोशिश है। हालांकि, इस फिल्म में उन पर लगे आरोपों और कानूनी प्रक्रिया को तरजीह नहीं दी गई है। फिल्म केवल उनके द्वारा जेल में बिताए गए समय पर आधारित है।
'UT 69' अर्थर रोड जेल में फैसला आने का इंतजार कर रहे कैदियों की मानवीय कहानी है।
फिल्म कुंद्रा के जेल में दाखिल होने से लेकर जमानत मिलने तक के दिनों पर आधारित है।
अभिनय
अभिनय के लिए तैयार थे कुंद्रा
फिल्म का मुख्य चेहरा कुंद्रा ही हैं। वह अपने अनुभवों को ही पर्दे पर उतार रहे हैं, ऐसे में अभिनय में वह नए नहीं लगते हैं।
शुरू से अंत तक हर दृश्य में कुंद्रा ही नजर आते हैं। जेल के अनुभव, तकलीफ, जमानत मिलने की उम्मीदें और उम्मीदों के टूटने को उन्होंने कुशलता से पर्दे पर बयां किया है।
कैदियों की भूमिका में सहायक किरदार सदानंद पाटिल, गणेश देओकर जैसे कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है।
निर्देशन
भावुक कहानी पर स्क्रिप्ट ने फेरा पानी
फिल्म देश के सबसे सख्त जेल में से एक जेल के भीतर की जिंदगी दिखाती है। इसके बावजूद कहीं कोई रोमांच या तकलीफ महसूस नहीं होती।
निर्देशक शाहनवाज अली ने मानो कुंद्रा द्वारा सुनाई गई कहानी कि प्रमुख घटनाओं को बेतरतीबी से एक के बाद एक रख दिया है। एक अच्छी कहानी होने के बाद भी यह पर्दे पर प्रभावित नहीं करती है।
फिल्म में कई भावुक और प्रेरक दृश्यों की जगह थी, जिसे निर्देशक भुना नहीं पाए।
स्क्रिप्ट
भावनाएं बयां करने में विफल हुए निर्देशक
फिल्म जेल में 6/4 की एक सेल में 200 से ज्यादा कैदियों के रहने की स्थिति को बयां करती है। इनमें कई किरदार हैं, सबकी अपनी कहानियां और अपनी भावनाएं हैं।
फिल्म इस सेल में मौजूद जिंदगी की एक भावनात्मक कहानी कहती है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के कारण ये भावनाएं पर्दे पर नहीं आतीं।
ऐसा लगता है कि कुंद्रा अपने किसी परिचित को कहानी सुना रहे हैं, जिसमें आम दर्शक की कोई दिलचस्पी पैदा नहीं होती।
संगीत
संगीत से मजबूत हो सकती थी फिल्म
फिल्म में कुंद्रा कई बार टूटते हैं और फिर हिम्मत से खड़े होते हैं। उनके साथ मौजूद अन्य कैदियों का भी यही हाल है, ऐसे में संगीत के जरिए फिल्म को प्रेरक और दिल छूने वाला बनाया जा सकता था। इसके विपरीत फिल्म की संगीत बिल्कुल सादा है।
कैमरे के खेल से भी कुंद्रा के अकेलेपन और निराशा को बयां किया जा सकता था, लेकिन यहां भी फिल्म असफल रही।
क्या अच्छा
सेट ने दिखाई जेल की झलक
फिल्म जेल की जिंदगी को बखूबी दिखाती है। जेल की दिनचर्या, यहां की चुनौतियां और छोटी-छोटी खुशियों से दर्शक रूबरू होते हैं।
जेल में कैदी सिर्फ एक नंबर बनकर रह जाते हैं। इस शून्य में भी वे कैसे छोटी-छोटी बातों का भी उत्सव मनाते हैं, यह देखना सुकून देता है। कैदियों के किरदार में सहायक कलाकारों ने अपने प्रदर्शन से इस अनुभव को और बेहतर किया है।
जेल का सेट भी दर्शकों को इसकी झलक दिखाने में कामयाब रहा है।
निष्कर्ष
देखें या न देखें?
क्यों देखें?- कुंद्रा को अभिनेता के रूप में देखने में दिलचस्पी रखते हैं, तो यह फिल्म देख सकते हैं। जेल के अंदर कैदियों की जिंदगी से रूबरू होना हो, तो इस फिल्म को समय दिया जा सकता है।
क्यों न देखें?- पोर्नोग्राफी मामले में नए तथ्यों को जानने की उम्मीद रखते हैं, तो यह फिल्म निराश करेगी। फिल्म कुंद्रा के जेल के दिनों का दस्तावेज मात्र है।
न्यूजबाइट्स स्टार- 1.5/5