
फिल्म 'कला' रिव्यू: संगीत के इस सफर में चमके बाबिल खान और तृप्ति डिमरी
क्या है खबर?
दिवंगत अभिनेता इरफान खान के जाने के बाद उनके बेटे बाबिल खान की पहली फिल्म 'कला' का दर्शक बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, जो आज यानी 1 दिसंबर को खत्म हो गया है।
फिल्म नेटफ्लिक्स पर आई है। इसके निर्देशन की जिम्मेदारी अन्विता दत्त ने ली और प्रोडक्शन का काम अनुष्का शर्मा की प्रोडक्शन कंपनी क्लीन स्लेट फिल्म्स ने संभाला। फिल्म के नायक बाबिल तो नायिका तृप्ति डिमरी हैं।
फिल्म देखने से पहले इसका रिव्यू पढ़िए।
कहानी
मां-बेटी के जटिल रिश्ते पर आधारित है फिल्म
फिल्म की कहानी 1940 के दशक की है। यह उर्मिला मंजूश्री (स्वास्तिका मुखर्जी) और उसकी बेटी कला (तृप्ति) के जटिल रिश्ते के इर्द-गिर्द घूमती है।
उर्मिला यूं तो चाहती है कि उसकी बेटी कला उसकी संगीत की विरासत को आगे ले जाए, लेकिन उसे उसकी कला पर विश्वास नहीं है।
कला अपनी मां का दिल जीतने की हरमुमकिन कोशिश करती है, लेकिन पितृसत्तात्मक सोच के चलते उर्मिला उससे कभी संतुष्ट नहीं होती, जिससे कला अंदर ही अंदर घुटती रहती है।
कहानी
जगन की एंट्री ने बदला कला के करियर का रुख
कहानी में मोड़ तब आता है, जब इसमें रहस्यमई गायक जगन (बाबिल) की एंट्री होती है। उर्मिला उसके गायन से इस कदर प्रभावित हो जाती है कि वह उसे गायक बनाने में जुट जाती है।
इसके बाद कला और कुंठित हो जाती है। दूसरी तरफ उर्मिला, कला पर शादी का भी दबाव डालती है। जगन के आने से कला मानसिक रूप से बीमार हो जाती है।
फिर कहानी में आते हैं बड़े ट्विस्ट, जो देखने लायक हैं।
अभिनय
बाबिल की बॉलीवुड में बढ़िया शुरुआत
बाबिल ने अभिनय के अखाड़े में अपना दमखम दिखाया है। अपनी पहली फिल्म के हिसाब से उन्होंने बढ़िया काम किया है। पर्दे पर उन्हें देख लगता है कि वह अनुभवी कलाकार हैं।
उनका अभिनय बनावटी नहीं लगता। वह भी अपने पिता की तरह कागज पर लिखे संवादों को आंखों में उतारने का दम रखते हैं।
भले ही फिल्म में उनके ज्यादा डायलॉग नहीं हैं, लेकिन उन्होंने साबित कर दिया है कि वह प्रतिभाशाली हैं और काफी कुछ कर सकते हैं।
अभिनय
तृप्ति ने भी किया कमाल
अभिनय कौशल दिखाने के मामले में तृप्ति डिमरी ने मौके पर चौका मारा है।
इससे पहले अन्विता की फिल्म 'बुलबुल' में भी उन्होंने अपने अभिनय से वाहवाही बटोरी थी और अब एक बार फिर अपनी उम्दा अदाकारी से त़प्ति ने दिल जीत लिया है।
मासूमियत और दर्द उनकी आवाज और चेहरे पर साफ झलकता है। फिल्म में उनकी गायकी देख ऐसा लगता है मानों वह असल में गायिका हों, वहीं स्वास्तिका मुखर्जी भी अपने किरदार में अच्छी लगी हैं।
निर्देशन
निर्देशक ने नहीं किया निराश
अन्विता के निर्देशन में परिपक्वता झलकती है। चकाचौंध की दुनिया के पीछे का काला सच और मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा उन्होंने बखूबी अपनी इस फिल्म में उतारा है।
फिल्म आपको 40 के दशक का पूरा सफर कराती है। अन्विता ने कलाकारों के लुक का भी पूरा ध्यान रखा है, जो आपको उसी जमाने में ले जाता है।
उन्होंने एक शानदार विजुअल ट्रीट दर्शकों को दी है। फिल्म के दृश्यों में उनकी मेहनत साफ दिखाई देती है।
संगीत और सिनेमैटोग्राफी
संगीत और सिनेमैटोग्राफी
संगीत इस फिल्म की कहानी में बेहद अहम है, जिसके साथ अमित त्रिवेदी ने पूरा न्याय किया। बैकग्राउंड म्यूजिक भी काबिल-ए-तारीफ है।
'घोड़े पे सवार' से लेकर 'शौक' और 'उड़ जाएगा' तक, हर गाने ने फिल्म को आगे बढ़ाने का काम किया है।
दूसरी तरफ फिल्म का चित्रांकन और आंखों को सुकून देने वाले कई खूबसूरत नजारों को देख आप इसकी सिनेमैटोग्राफी की तारीफ किए बिना नहीं रहेंगे। कश्मीर की आकर्षक वादियां फिल्म को एक अलग ही रंग देती हैं।
कमजोर कड़ी
धीमी रफ्तार बनी राह का रोड़ा
दो घंटे की इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसकी रफ्तार बहुत धीमी है। खासतौर पर फर्स्ट हाफ में तो यह बहुत बोझिल लगती है, वहीं सेंकेड हाफ भी काफी खींचा हुआ सा लगता है।
वो बात अलग है कि कलाकारों का अभिनय स्क्रीन से निगाहें नहीं हटने देता। फिल्म का संपादन चुस्त होता तो इसे देखने में और मजा आता।
इसके अलावा जगन और कला का प्रेम भी फिल्म की कहानी में कहीं दब सा गया।
निष्कर्ष
देखें या ना देखें?
क्यों देखें?- कुछ कहानियों से हम खुद को जोड़ नहीं पाते, लेकिन फिर भी वे जहन में एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं, 'कला' की कहानी कुछ ऐसी ही है। बाबिल और तृप्ति की परफॉर्मेंस के लिए यह फिल्म देखनी चाहिए।
क्यों न देखें?- अगर आप संगीत पर आधारित फिल्में देखने के शौकीन नहीं या आप एक आम बॉलीवुड मसाला फिल्म समझकर यह फिल्म देख रहे हैं तो आपके निराशा हाथ लगेगी।
हमारी तरफ से 'कला' को 3.5 स्टार।