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    #Review: पहली बार 'क्लास ऑफ 83' में खाकी वर्दी पहने दिखे बॉबी देओल, दिल जीत लेंगे

    #Review: पहली बार 'क्लास ऑफ 83' में खाकी वर्दी पहने दिखे बॉबी देओल, दिल जीत लेंगे

    लेखन भावना साहनी
    Aug 22, 2020
    04:41 pm

    क्या है खबर?

    हिन्दी सिनेमा में पुलिस, राजनीति और गैंगस्टर जैसे मुद्दों पर कई फिल्में बनाई गई है। ऐसे में अब मेकर्स अगर इन विषयों पर फिल्म बनाते हैं तो उनके लिए काम थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

    अतुल सभरवाल अब हुसैन जैदी की किताब 'क्लास ऑफ 83: द पनिशर्स ऑफ मुंबई पुलिस' पर आधारित फिल्म 'क्लास ऑफ 83' लेकर आए हैं।

    रेड चिलीज द्वारा निर्मित यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो गई है। आइए जानते हैं कैसी है फिल्म।

    शुरुआती कहानी

    सजा के तौर पर डीन बने विजय सिंह का सभी को इंतजार

    फिल्म की शुरुआत में 80 के दौर में नासिक पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में खाकी वर्दी पहने नौजवानों को ट्रेनिंग करते देखा जाता है, जिन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन फिर भी हर दिन ट्रेनर मंगेश (विश्वजीत प्रधान) की गालियां सुनते हुए ट्रेनिंग कर रहे हैं।

    एकेडमी में सभी को डीन विजय सिंह (बॉबी देओल) की क्लास का इंतजार है, जो मुंबई के मशहूर IPS ऑफिसर हैं। लेकिन एक सजा के तौर पर पुलिस एकेडमी में डीन बनकर पहुंचते हैं।

    आगे की कहानी

    सबसे नालायकों में डीन को दिखती है उम्मीद

    विजय सिंह अपनी निजी जिंदगी में हुई कुछ घटनाओं के कारण हारे हुए शख्स हैं, जिसे एक दिन अचानक एकेडमी के पांच सबसे नालायक लड़कों को देखकर ऐसा लगता है कि वह देश को अंडरवर्ल्ड से बचाने में उसकी मदद कर सकते हैं।

    डीन उन्हें किताबी सिलेब्स से हटकर तैयार करते हैं। डीन अपने मिशन में कामयाब भी होने लगते हैं, लेकिन यही कामयाबी उनके तैयार किए इन लड़कों पर ऐसी चढ़ती है कि हालात काफी बिगड़ने लगते हैं।

    जानकारी

    बोर नहीं करती कहानी

    पुलिस के बीच आपसी मतभेद, अंडरवर्ल्ड, अहंकार और इमोशन्स फिल्म को दिलचस्प बनाते हैं। फिल्म के संवाद रोचक हैं। इसमें 80 के दशक की कहानी दिखाई गई है, लेकिन अभिजीत देशपांडे की कलम का जादू है कि कहानी पुरानी होने के बावजदू बोर नहीं करती।

    बॉबी का अभिनय

    बॉबी देओल ने संभाली फिल्म की कमान

    फिल्म में बॉबी देओल 25 साल के करियर में पहली बार पुलिस की वर्दी पहने शानदार और गंभीर पुलिस ऑफिसर के किरदार में दिखे हैं। इस फिल्म में पहली बार उन्हें एक इमोशनल दादा की भूमिका में भी देखा जा रहा है।

    बॉबी देओल ने सोलो हीरो के तौर पर अकेले फिल्म को संभाला है। उन्होंने एक सख्त डीन और एक ऐसे ईमानदार ऑफिसर का किरदार बखूबी निभाया है जो सिस्टम के खिलाफ जाकर देश के लिए लड़ता है।

    अभिनय

    अन्य कलाकारों ने भी किया कमाल

    भूपेंद्र जाड़ावत (प्रमोद शुक्ला), हितेश भोजराज (विष्णु वर्दे), पृथ्विक प्रताप (जनार्दन सुर्वे), निनाद महाजनी (लक्ष्मण जाधव) और समीर परांजये (असलम खान) ने ट्रेनिंग की लड़कपन से नौकरी के अहंकार और जुनून को खूबसूरती से दिखाया है। इन्हें फिल्म की शान कहना गलत नहीं होगा।

    भ्रष्ट नेता मनोहर पाटकर की भूमिका में अनूप सोनी काफी जचे हैं, जबकि जॉय सेनगुप्ता (राघव) ने भी अपने किरदार के साथ इंसाफ किया।

    उनके अलावा विश्वजीत प्रधान को और स्क्रीन स्पेस दिया जा सकता था।

    निर्देशन

    सभी किरदारों का बेहतरीन इस्तेमाल

    फिल्म एक किताब पर आधारित है, इसलिए अतुल सभरवाल इसके साथ ज्यादा प्रयोग नहीं कर सकते थे। क्योंकि इसकी वजह से चीजें खराब होने लगती हैं। उन्होंने बहुत बारीकी दिखाते हुए संतुलन में काम किया है।

    फिल्म में कई चीजों की कमियां दिखी, लेकिन इसके बावजूद कहानी जबरदस्ती थोपी हुई नहीं लगती। उन्होंने पुलिस डिपार्टमेंट के भीतर की सच्चाई को दिखाने की अच्छी कोशिश की है।

    वहीं, लगभग सभी किरदारों का उन्होंने सही इस्तेमाल कर अच्छी एक्टिंग भी निकलवाई है।

    म्यूजिक और सिनेमैटोग्राफी

    खूबसूरती से दिखाया गया 80 के दशक का माहौल

    फिल्म में एक भी गाना नहीं डाला गया है और इसकी कहीं जरूरत भी नहीं लगी।

    वहीं सिनेमैटोग्राफी की खासतौर पर तारीफ की जा सकती है। 80 के दशक के मुंबई और हल्का ब्लैक एंड व्हाइट एरा इसे काफी खूबसूरत बनाता है।

    फिल्म की पटकथा को देखते हुए कैमरे में हर एंगल और रंग को शानदार ढंग से उतारा गया है। लोगों का पहनावा और बोलचाल में भी कोई कमी नहीं दिखती।

    कमजोर कड़ियां

    फिल्म में दिखी कुछ कमियां

    जहां एक ओर आजकल फिल्मों को बढ़ाने के लिए उनमें जबरदस्ती कई चीजें जोड़ी जाती हैं, वहीं एक घंटे 38 मिनट की यह फिल्म पूरी कहानी बताने के लिए थोड़ी छोटी लगती है।

    इसमें बॉम्बे के हालात, कॉटन मिल्स और मजदूरों को जबरदस्ती अपराध की दुनिया में धकेलने जैसे मुद्दे उठाए गए हैं, लेकिन वहीं इन मुद्दों पर थोड़ी और चर्चा की जा सकती थी।

    इसके अलावा फिल्म के कई सीन्स भी थोड़े खीचे हुए लगते हैं।

    समीक्षा

    देखें या न देखें?

    डायरेक्टर ने कहानी को बॉलीवुड ड्रामा फिल्मों की तरह बनाने की बजाय मुख्य मुद्दों पर जोर देने की कोशिश की है। इसमें आपको 80 के दशक पर बनाई जाने वाली फिल्मों की तरह आइटम नंबर और नशे में चूर लोग पैसे उड़ाते नहीं दिखेंगे।

    यह फिल्म बॉबी देओल के लिए देखी जा सकती है जिन्हें देखकर पिछले कुछ समय से लग रहा था कि वह कहीं खोते जा रहे हैं।

    हमने फिल्म को पांच में से तीन स्टार दिए हैं।

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