पंजाब में अब कृषि मजदूरों ने छेड़ा आंदोलन, नौ जगहों पर चलाया रेल रोको अभियान
पंजाब में किसानों के बाद अब कृषि मजदूरों ने भी आंदोलन छेड़ दिया है। राज्य के कृषि मजदूर आज रेल रोको अभियान चलाया जिसमें राज्य की नौ अलग-अलग जगहों पर ट्रेनों को रोका गया। मजदूरों की मांग है कि माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से लिए गए उनके लोन और बिजली के बिल माफ किए जाएं और जरूरतमंद मजदूर परिवारों को रहने के लिए प्लॉट दिए जाएं। उन्होंने खेती योग्य पंचायती जमीन की नीलामी रोकने की मांग भी की है।
अमृतसर समेत कई शहरों में रोकी गईं ट्रेनें
कृषि मजदूरों के संगठन सांझा मोर्चा ने दोपहर 12 बजे से लेकर शाम 4 बजे तक यह रेल रोको अभियान चलाया। इसके तहत अमृतसर, मंसा, बठिंडा और फरीदकोट की दो-दो जगहों और मालवा आदि में ट्रेनें रोकी गईं। अमृतसर में रेल रोकने के कारण दिल्ली के रूट पर सेवाएं प्रभावित हुई हैं। पंजाब में किसानों के सबसे बड़े संगठन भारतीय किसान यूनियन उग्रहान ने मजदूरों के इस आंदोलन का समर्थन किया है।
सरकार ने नहीं दिया कोई आश्वासन- संगठन नेता
पंजाब खेत मजदूर यूनियन (PKMU) के महासचिव लक्ष्मण सिंह सेवेवाला ने मजूदरों के प्रदर्शन पर कहा, "सांझा मोर्चा ने 23 नवंबर को मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी से मुलाकात की थी। उन्होंने हमारी मांगों पर कोई आश्वासन नहीं दिया था, फिर भी हमने कुछ दिन तक इंतजार किया और अब हम रेल रोको अभियान चला रहे हैं।" लक्ष्मण कल ही किसान आंदोलन में हिस्सा लेकर टिकरी बॉर्डर से पंजाब पहुंचे हैं।
"डमी उम्मीदवार खड़ा करके छीना जा रहा दलितों का जमीन जोतने का अधिकार"
संगठन के एक अन्य नेता तरसेम पीटर ने दलितों के अधिकारी माने जाने पर कहा, "एक-तिहाई जमीन दलितों के लिए आरक्षित है, लेकिन जमींदार डमी उम्मीदवार खड़ा कर देते हैं जिससे जमीन को जोतने के दलित परिवारों का अधिकार मारा जाता है।" उन्होंने कहा कि गुरदासपुर में इस मुद्दे को उठाया गया था, लेकिन मुख्यमंत्री ने फिर भी नीलामी को रद्द नहीं किया गया। आंदोलन कर रहे मजदूरों ने इस नीलामी को रद्द करने की मांग भी की है।
किसान आंदोलन में पंजाब की थी अहम भूमिका
बता दें कि पंजाब किसान आंदोलन का भी केंद्र रहा है और एक साल तक चले आंदोलन में राज्य के किसानों की अहम भूमिका रही थी। ये किसान दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठने से दो-तीन महीने पहले से ही आंदोलन कर रहे थे। सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर पर पंजाब के आंदोलनकारी सबसे बड़ी संख्या में थे और ये आंदोलन के सबसे मजबूत मोर्चे में थे। किसानों के आगे झुककर सरकार को कानून वापस लेने पड़े हैं।