अमेरिका में काले-गोरे जितना ही जाति-धर्म के आधार पर बंटे हुए हैं भारतीय शहर- शोध
क्या है खबर?
भारत के शहरों में मुस्लिमों और अनुसूचित जाति के लोगों को लेकर समाज उतना ही बंटा हुआ है, जितना अमेरिका में काले और गोरे लोगों को लेकर बंटा हुआ है।
अंतरराष्ट्रीय शिक्षाविदों और अर्थशास्त्रियों के एक समूह द्वारा किए गए शोध में ये बात सामने आई है।
इस शोध पत्र को तैयार करने में 2012 की जनगणना और आर्थिक जनगणना के आंकड़ों के अलावा करीब 15 लाख परिवारों से बात की गई है।
बात
शोध में क्या बात कही गई है?
शोध के मुताबिक, भारतीय शहरों में मुस्लिमों-अनुसूचित जाति के लोगों के अलगाव का स्तर अमेरिका में श्वेत और अश्वेत लोगों के बराबर है। शहरों में सार्वजनिक सुविधाओं और बुनियादी ढांचे को व्यवस्थित रूप से उन इलाकों से दूर बनाया जाता है, जहां मुस्लिम और अनुसूचित जातियां रहती हैं।
शोध में बताया गया है कि जिन इलाकों में पिछड़े लोग रहते हैं, वहां विद्यालय, स्वास्थ्य सुविधाएं, पानी की पाइपलाइन, बिजली और नाली जैसी सेवाओं की पहुंच कम है।
मुस्लिम
अपने समुदाय के आसपास रह रहे मुस्लिम और अनुसूचित जाति के लोग
शोध में बताया गया है कि 26 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वहां रहती हैं, जहां आसपास के इलाकों में 80 प्रतिशत मुस्लिम रहते हों।
इसी तरह 17 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग वहां रहते हैं, जहां 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी इसी समुदाय की है।
शोध के अनुसार, ऐसा इलाका जहां एक भी मुस्लिम घर नहीं है, उसकी तुलना में उन इलाकों में पानी की पाइपलाइन होने की संभावना 10 प्रतिशत कम है, जहां 100 प्रतिशत मुस्लिम घर हैं।
मुस्लिम अलग
शहरों में मुस्लिम ज्यादा अलग-थलग
शोध के मुताबिक, शहरों में अनुसूचित जाति की तुलना में मुस्लिम अपेक्षाकृत ज्यादा अलग-थलग हैं।
ऐसे शहर जहां ये अलगाव ज्यादा हैं, वहां के मुस्लिम कम अलगाव वाले शहरों की तुलना में ज्यादा गरीब भी हैं।
अमेरिका की तुलना में भारत में अंतर ये है कि इस तरह की स्थिति लगभग सभी समुदाय के लिए है। अमेरिका में देखा जाता है कि जिन शहरों में अलगाव ज्यादा है, वहां केवल अश्वेत लोग ज्यादा गरीब हैं, लेकिन बाकी समुदाय के नहीं।
किसने
किसने किया है ये शोध?
ये शोध पत्र न्यू हैम्पशायर स्थित डार्टमाउथ कॉलेज में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर पॉल नोवोसैड ने जारी किया है।
उनके साथ इंपीरियल कॉलेज, लंदन में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर सैम एशेर, डेवलपमेंट डाटा लैब के कृतार्थ झा, शिकागो विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर अंजलि अदुकिया और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अर्थशास्त्री ब्रैंडन टैन ने भी शोध पत्र को लिखा है।
बताया जा रहा है कि इस शोध पत्र पर अभी और काम चल रहा है।