फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' रिव्यू: जुझारू वकील के किरदार में खूब जमे मनोज बाजपेयी
मनोज बाजपेयी ने अपने उम्दा अभिनय से पर्दे पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उन्हें किसी तरह के परिचय की जरूरत नहीं। उनका नाम ही काफी है। आजकल मनोज फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' को लेकर सुर्खियाें में हैं। जब से इस फिल्म का ट्रेलर आया, दर्शकों को इसकी रिलीज का इंतजार था, जो अब आखिरकार खत्म हो गया है। फिल्म 23 मई को ZEE5 पर दस्तक दे चुकी है। देखने से पहले जानिए कैसी है उनकी ये फिल्म।
असल घटना से प्रेरित है फिल्म की कहानी
फिल्म एक सच्ची घटना से प्रेरित है, जिसमें मनोज का किरदार प्रसिद्ध वकील पूनम चंद सोलंकी से प्रेरित है। सोलंकी ने यह केस एक धर्मगुरु के खिलाफ लड़ा था, जिस पर नाबालिग से रेप करने का आरोप था और धर्मगुरु को उम्रकैद हुई थी। 'भक्तों के भगवान' कहे जाने वाले इस गुरू की देशभर के दिग्गज वकीलों ने पैरवी की और पैसा खाकर मामले को रफा-दफा किया क्योंकि धन-बल से सक्षम बाबा को बचाने में पूरा अमला जुट गया था।
'बाबा वर्सेज सोलंकी' की दिलचस्प जंग
समर्थक हरमुमकिन कोशिश करते हैं कि पूज्य बाबा (सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ) की छवि पर दाग न लगे। इसके बाद पुलिस पीड़िता (नू) के परिवारवालों को एक ऐसे वकील के पास भेजती है, जो अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर है। उन्हीं का नाम है पूनम चंद साेलंकी (मनोज बाजपेयी), जो नू को न्याय दिलाने का बीड़ा उठाते हैं। अब एक अदना सा वकील कैसे बड़े-बड़े वकीलों को फेल करता है, यह जानने के लिए आपको यह कोर्टरूम ड्रामा देखना होगा।
मनोज के अभिनय से अमर हुए सोलंकी
मनोज ने फिल्म में कालजयी अभिनय किया है। उनके लिए हर पुरस्कार छोटा पड़ेगा। उन्होंने एक वकील का किरदार ऐसे जिया, मानों असल में उन्होंने वकालत की हो। उन्हें देख बस मुंह से यही निकलेगा कि यह बंदा सचमुच कमाल का है। मनोज अपने किरदार में पूरी तरह से रमे नजर आए। उनका रोंगटे खड़े कर देना वाला प्रदर्शन शर्तिया सालों-साल याद रहेगा। राजस्थानी लहजा पकड़ने से लेकर अदालत में दी गई उनकी आखिरी स्पीच तक स्तब्ध कर देती है।
सहायक कलाकारों ने भी फिल्म में डाल दी जान
अभिनेत्री अद्रिजा (नू) का अभिनय देख आपके मुंह से बस वाह निकलेगा। उन्होंने इसमें बाबा की करतूतों का शिकार हुई एक 16 साल की बच्ची का किरदार ऐसे निभाया कि उनकी आंखें देख आपको भी उनकी वो पीड़ा महसूस होगी। दूसरी तरफ बचाव पक्ष के वकील बने विपिन शर्मा ने नकारात्मक भूमिका ऐसे निभाई कि उनका शातिराना अंदाज देख किसी को भी उनसे नफरत हो जाए, वहीं बाबा की भूमिका में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ भी अपने किरदार में रच-बस गए।
पटकथा और संवाद
फिल्म को 2 घंटे तक प्रभावी बनाए रखने की जिम्मेदारी लेखक की होती है और दीपक किंगरानी ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। उन्होंने इतनी कसी पटकथा लिखी, जिसे देखते वक्त ठहरने का मौका नहीं मिलता, वहीं फिल्म में बोले गए संवाद भी दमदार हैं।
निर्देशक ने खींची हिंदी सिनेमा में लंबी लकीर
रेप जैसे विषय और ऐसी संवेदनशील कहानी लोगों के बीच लाने की हिम्मत करने के लिए निर्देशक अपूर्व सिंह कार्की की दाद देनी होगी। बड़ी बात यह है कि अपूर्व की यह पहली फीचर फिल्म है। फिल्म के हर फ्रेम में उनकी मेहनत नजर आती है। अदालत में बिना चीखे-चिल्लाए अपूर्व ने कोर्टरूम ड्रामा को मेलोड्रामा नहीं बनने दिया, जो इसे खास बनाती है। उन्होंने साबित कर दिया है कि वह निर्देशन में एक लंबी रेस के घोड़े हैं।
संगीत और सिनेमैटोग्राफी
अपूर्व का सिनेमैटोग्राफर अर्जुन कुकरेती ने पूरा साथ दिया। उन्होंने फ्रेम दर फ्रेम इसे वास्तविकता के करीब रखा। दूसरी तरफ फिल्म में गीत-संगीत को खास जगह नहीं मिली है, लेकिन सोनू निगम का गाया हुआ गाना 'बंदेया' सुनने में अच्छा लगता है।
फिल्म देखें या न देखें?
क्यों देखें?- यह महज एक फिल्म नहीं है, बल्कि एक लाजवाब अनुभव है और इसे हिंदी सिनेमा का अब तक का सबसे बेहतरीन कोर्टरूम ड्रामा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। मनोज के लिए इस फिल्म को एक मौका जरूर दिया जाना चाहिए क्योंकि वह इस फिल्म की जान हैं। उनका हर दृश्य याद रह जाता है। क्यों न देखें? अगर कानूनी दांवपेच पर आधारित फिल्मों से परहेज करते हैं तो ही आप यह फिल्म मिस कर सकते हैं। न्यूजबाइट्स स्टार- 4/5
न्यूजबाइट्स प्लस
यह फिल्म अपने आप में संपूर्ण है। कंटेंट और एक्टिंग के मामले में यह अव्वल है। इसमें संदेश दिया गया कि सच की हमेशा जीत होती है और अगर इंसान ठान ले तो बड़े-बड़े सूरमाओं को आईना दिखाने के लिए "सिर्फ एक बंदा काफी है।"